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Saturday, October 4, 2025

संगीत श्रोता किसे कहे?

 

अभ्युदय

संगीत श्रोता का

 

लेखन – नंदन हेर्लेकर 

संगीत की किसी भी शाखा का अध्ययन करने से पहले अभ्यासक को एक उत्तम श्रोता बनने की आवश्यकता होती है | जो विद्यार्थी अनेक वर्षो तक अच्छा संगीत सुनने के पश्चात अपनी खुद की इच्छा के अनुसार संगीत सीखना प्रारंभ करता है, उसके मन पर सूर-लय-ताल के अच्छे संस्कार हो जाते हैं| संगीत की शिक्षा लेने के लिए आवश्यक मेहनत का प्रमाण, बुद्धि, उमर, और उसके निर्धार की कसौटी की परीक्षा हो जाती है| अर्थात एक सामान्य श्रोता की भूमिका से प्रत्यक्ष कला का आविष्कारक होने तक का उसका प्रवास बडा रोचक हो जाता है| एक सक्षम कलाकार के बनने में अनेक वर्षो की तपस्या की आवश्यकता होती है| कच्ची उम्र में संगीत शिक्षा का आरम्भ करने का फायदा तब दीखता है जब युवावस्था में ही वह मंचासीन हो जाता है|

 

जहां जहां उत्तम श्रोता है, वहां अच्छा संगीत उपजता है, फुलता है तथा उस नगर की प्रसिद्धी अल्प समय में नजदीक के क्षेत्र में होने लगती है| वहां जितना महत्व कलाकार का होता है, उतना या उससे भी अधिक अच्छे श्रोता का है| वह श्रोता भी जानकार, मर्मज्ञ और बहुत संयमशील होता है| संयमशील इसलिए कि ऐसा श्रोता एक कलाकार को उभरने के लिये पूरा समय मिलें, उसके गुणो को विकसित होने का अवसर मिलें, सटीकता से दोषो का निराकरण करनेवाले मार्गदर्शक को पूरा सहयोग मिलें, इन सारी बातों पर ध्यान देनेवाला होता है| विद्वान गुरु के समक्ष उसका ज्ञानार्जन कितनी गहनतासे हो रहा है, उसपर भी उसका ध्यान होता है| केव ऐसा श्रोता ही कलाकार की कलाप्रस्तुती का सही रसग्रहण कर सकता है|  रसिकता उसका स्थायी गुण होता है| परन्तु रसिक, जानकार, मर्मज्ञ बनने से पहले उसे केवल एक उत्सुक श्रोता होना बहुत जरुरी है|

 

वैसे देखा जाएं तो संगीत सुनने की भी एक कला है| कला का आस्वाद लेना यह उसकी अगली कडी है| आस्वाद लेते समय उस कला का तकनीकी मर्म समझने की भी जरुरत नहीं होती| सुंदरता का स्पर्श जिसको महसूस होता हो, वही रसिक कहलाता है| अभिजात हिंदुस्तानी संगीत का आस्वाद लेने की चाहत रखनेवाले को पहले सुनने की आदत होनी चाहिये|

 

पहले पहले उसे यह संभ्रम होता है कि इतने सारे लोग एक घंटे से भी अधिक समय तक चलनेवाले ‘आ....ऊ...’ जैसी आवाजों को कैसे सुनते बैठते हैं! कविता के समान एकाध शब्द को पुनरावर्तित करते हुए होनेवाले गायन को क्यों दाद देते रहते हैं? तबला बजानेवाला एक जैसा ‘बीट’ बजाते रहता है, अचानक कभी कभी जबरदस्त आवाजें तबले से निकालता है और जब सारे लोग जोरजोरसे ‘वाहवाह’ कहते हैं, उसी समय फिरसे वही पुराना धीमा ‘बीट’ बजाना शुरू कर देता है|

 

पहली बार गायन सुननेवालेको यह सबकुछ बड़ा अजीबसा लागता है| उसके मन में गूढता निर्माण हो जाती है| इस गूढता की खोज करना उसकी एक जिम्मेदारी बन जाती है| धीरेधीरे उस गूढता की पहल उसे सूझने लगती है| एकही बार जाकर शास्त्रीय संगीत सुननेवाले उस महाशय को अब फिरसे गायन सुनने की इच्छा हो जाती है| पहली बार सुनी हुई कुछ मजेदार बात उसे फिरसे शायद ही सुननेको मिलती है, परन्तु उससे भी कुछ अलग परन्तु मनको भानेवाली बात उसको आनंद देती है| कभी कभी पुन:प्रत्यय का आनंद भी मिल जाता है| उसी क्षण से उसके मनको संगीत की कुछ कुछ समझ आने की संभावना शुरू हो जाती है| पहले सुनी हुई कोई हरकत फिरसे सुनने के पश्चात उसकी समझ और सुधर जाती है, कुछ शब्दों से वह परिचित होने लगता है| हरबार उसे नयी अनुभूति हो जाती है| उसको यह समझ में आने लगता है कि शास्त्रीय संगीत ‘मोनोटोनस’ न हो कर उसमें हरक्षण नवीनता होती है, नयी नयी कल्पनाओं का सृजन उसके अंदर होते रहता है, तथा शास्त्रीय संगीत में सूर, ताल तथा प्रमाणबद्ध तरीके का चक्राकार भ्रमण होते रहता है|  

 

अब अनेक कार्यक्रम सुनने पश्चात कुछ प्रमाणित शब्द, पद्धतियाँ, तालें, स्वरनाम, रागों के नाम इन सारी बातों का परिचय उसे होने लगता है| फिर कुछ अनुभव के आधार पर महफ़िल का वर्णन वह अपने शब्दों में करने का प्रयास करने लगता है| खुद को ‘रसिक’ कहलाने में उसे आनंद मिलने लगता है| कुछ चुने हुए रागों  का भी परिचय उसे होने लगता है| सर्वसामान्य श्रोता की तरह इस अवस्था में कविता (बंदिश) का आधार लेकर ही उसे राग पहचानना संभव हो जाता है, जैसे ‘एरी आली पियाबिन’ यानि यमन, ‘कान्हा रे’ यानि केदार, ‘लंगर कांकरिया’ यानि तोड़ी, ‘जागो मोहन प्यारे’ यानि भैरव वगैरह|

 

रागदारी संगीत को समझने की यह पहली सीढ़ी है!! शब्दप्रधानत्व यह गायन कला की रीढ़ की हड्डी है| शास्त्रीय संगीत में भी शब्दबहुलता अपना महत्व रखती है| इसी के फलस्वरूप ऐसा श्रोता गायक कौन सी चीज गा रहा है, इसी बात पर ध्यान देता है, ना कि चीज कैसी गया रहा है| इसीलिए इस मनोवस्था में स्वरों का यथोक्त परिचय ना होने के कारण कोई और बंदिश की प्रस्तुती होने पर उसे राग समझने में कठिनाई हो जाती है| इस गतिविधि को हम कहेंगे कि राग का नादमय परिचय ना होना| रागों का नादमय होने के लिए ऐसे श्रोता को कुछ और इंतजार करना पड़ता है| श्रवणसातत्य के होने से स्वरों की नजदीकी समझ में आनी लगती है| स्वरों का आशय उलगने लगता है| इसके बाद ही स्वरप्रधान गायकी का मर्म उसकी अंतरशक्ति में प्रवेश करने लगता है| यही क्षण है, जब उसका ‘सुनना’ सही में प्रारंभ होता है| ‘ख्याल’ का मतलब समझ में आने लगता है| इसी अवस्था में गानेवाले के ‘ख्याल’ में वह बहने लगता है| ख्याल समझने की परिपक्वता, योग्य मनोभूमिका तैयार होने लगती है| राग का सौंदर्यतत्व समझने की आगे की सीढ़ी वह चढ़ जाता है|

 

इस अवस्था में भी उसका ध्यान सर्वपरिचित रागों की तरफ होता है| ऐसे रागों की खास स्वरपंक्ति उसके कर्णरंध्रों में भारी रहती हैं| जैसे कि बागेश्री सुनते समय वह’ ‘मपध म रे सा’ सुनने की आतुरता रखता है| ख्याल सुनने की सही आदत के कारण उसे अब कईं स्वरनाम याद होने लगते हैं| केवल आकार की आलापी से स्वर पहचान लेने की प्रगति भी हो जाती है| बंदिश को सुनकर राग पहचानने की उसकी आदत अब नष्ट होकर केवल स्वरों की पकड़ सुनने के तत्क्षण राग पहचानने तक सुधर जाती है| राग विस्तार की कल्पना अपने स्वयं के गुनगुनने तक उसकी प्रगति हो जाती है| गर आवाज अच्छी हो तो परिचित राग की सुरावटें वह खुद गाने लगता है| अबतक अनेकों का गायन सुनने के कारण उसके गुनगुनने में भी कुछ वजन आ जाता है| शब्दों का आकर्षण अधिक होने के कारण अनेकों से सुनी हुई चीजें हूबहू गाने की क्षमता उसमें आ जाती है| ‘कोठीवाले गवैयों’ जैसी उसकी भी ‘कोठीवाले श्रोता’ की प्रतिमा प्रसिद्ध होने लगती है| (एकएक राग की सैंकड़ों बंदिशें गानेवाले गवैये को एक जमाने में ‘कोठीवाले गवई’ कहा जाता था)| पुणे नगरके सुप्रसिद्ध आबासाहेब मुजूमदार, बेलगांव के देउलकर मास्टर या कुंदगोल के देसाई अण्णा जैसे गणमान्य श्रोता हरेक सुसंस्कारित नगरी में होते हैं| उनकी संगीत सुनने की अमीरी इतनी होती है, कि ‘रसिकों के राजा’ कहलानेवाले बड़े बड़े कलाकार भी ऐसे श्रोताओं के उपस्थित ना होनेपर नाराज हों| गाते समय अगर ऐसी कोई व्यक्ति महफ़िल में आ जाएं तो गाने का रंग अधिक गहरा हो जाता हों| मैंने स्वयं अनुभव किया है कि कुमार गंधर्व हों या भीमसेनजी, देउलकर मास्टर के आने तक अपना गायन भी प्रारंभ नहीं करते थे| ऐसे रसिक श्रोताओं की भी स्मरणशक्ति इतनी सूक्ष्म होती है कि बरसों बाद भी उसी दिन का समय, गाया हुआ राग और गायी हुई बंदिशें हुबहूँ वे गा कर सुनाते हैं| एक पीढ़ी ऐसी थी कि जब उनके पास ना टेप रिकार्डर था, ना कोई और सामान! परंतु बंदिशें तो सुनकर ही रट ली थीं उन्होंने!!

 

नयें कलाकारों को ऐसी व्यक्ति हमेशा आदरणीय होती है| जबही मौका मिलें, उनसे मिलने या गप्पे लगानी की वे राह देखते हैं| कोई उत्साह के साथ या कोई कुछ मानसिक दबाव में उनके सामने अपनी कला को प्रस्तुत करते हैं तथा उनकी राय जान लेते हैं| मार्गदर्शन प्राप्त कर लेते हैं| ऐसी व्यक्ति उस कलाकार का जोश बढ़ाने का काम जरूर करती है| ओंकारनाथ ठाकुर, सलामत नझाकत, बड़े गुलाम अली, छोटा गन्धर्व, अहमदजान थिरकवा, राम मराठे, अमीरखाँ, रवि शंकर, अली अकबर, यशवंतबुवा जोशी जैसे महान कलाकारों का संगीत सुने हुए श्रोता जब ऐसे युवा कलाकारों के सम्मुख अपने अनुभव बताते हैं, तब यूट्यूब से भी बढ़कर उन कलाकारों का चरित्र उनके सामने आ प्रकटता है| कभीकभी उनकी सारी विशेषताओं का प्रात्यक्षिक ऐसे बुजुर्गों से नई पीढ़ी को प्राप्त हो जाता है| हर्ष, विषाद, दुख, कारुण्य, विरह, मिलन जैसे सारे भाव गतपीढ़ी के महनीय कलाकारों के गायन के द्वारा कैसे प्रतीत होते थे, इसका सही वर्णन ऐसे बुजुर्ग श्रोताही कर सकते हैं| ‘जहाँ हमारी नजर नहीं पहुँचती, वहाँ आपका स्वर पहुंचता है’ जैसे वर्णनात्मक वाक्य भी ऐसे सम्माननीय श्रोताओं के मुख से सुनने को मिलते हैं| उनके वर्णन करने की क्षमता को देखकर सच्चे संगीतप्रेमी की आँखों में आँसु आ जाते हैं|

 

सच्चे श्रोता की मनोभूमिका को समझने के लिए हम अब अकबर के दरबार में पहुंचेंगे|

 

सम्राट का संगीतप्रेम देख कर सारे दरबारिओं का संगीतप्रेम चरमसीमा पर पहुँच गया| जो भी कोई तानसेन को देखें, ‘वाहवाह’ की बरसात करने लगा| तानसेन के स्वर लगाने से पहले ही वाहवाही की खैरात सुनकर सम्राट का क्रोध बढ़ गया| उसने हुकूम छोड़ दिया कि इसके बाद ‘वाहवाह’ करनेवाले की गर्दन उड़ाई जाएगी|

 

हर जगह समशेरधारी खड़े हो गएँ| अपूर्व शांति में तानसेन का गायन रंग भरने लगा| उसके स्वरों की नशा से मानो सारा माहौल विस्मयचकित हो गया| स्वरसम्राट तानसेन के स्वरों का भराव जैसेजैसे उत्कंठा से गूंजने लगा, तब अचानक एक कोने से ‘वाहवाह!’ सुनाई दी| समशेर उठ गई| सारा दरबार डर गया| सम्राट ने सैनिक की उठी समशेर को रोक दिया और उस दरबारी को आगे आ जाने का हुक्म दे दिया| डर के मारे कांपता हुआ वाह सबके सामने आ गया| सम्राट ने कहा, “मृत्यु को देखते हुए भी तुम्हारा सच्चा संगीतप्रेम देख कर मैं खुश हूँ| आज से तुम वहाँ पीछे नहीं, संगीत के सम्राट तानसेन के बिल्कुल सामने बैठकर गायन सुनोगे”| धन्य वह तानसेन और धन्य वह श्रोता!!

 

यह हकीकत हों या किंवदंती| असली श्रोता की मनोभूमिका स्पष्ट करनेवाली यह बात है, इसमें  कोई संदेह नहीं|  

 

लेखन - नंदन हेर्लेकर                           

Friday, May 23, 2025

राग समय के बारे में

 

संगीत श्रोतावलम्बी कला है। गायन, वादन या नर्तन की प्रस्तुति रसिकों, गुनिजनों या ज्ञानी अभ्यासकों के समक्ष हों तो कलाकार की अभिव्यक्ति में चार चाँद लग जाते हैं। ‘’स्वांत:सुखाय’’ संगीतराधना केवल रियाज़ के समय ठीक है। ऐसे भी कलाकार हैं, जिन्हे अपने रियाज़ के समय भी श्रोताओं की उपस्थिति आवश्यक लगती है। जब गुरुजन अपना रियाज़ करते हैं तब अन्य श्रोताओं के बजाय केवल शिष्यों का होना दोनों पक्षों के लिए अनुकूल होता है। वैसे संगीत की शिक्षा ‘’सीना ब सीना’’ होने की परम्परा है। गुरू-शिष्यों के सह जीवनक्रम की आवश्यकता संगीतविद्याग्रहण के साथ-साथ शिष्य के  अन्य जीवनावश्यक घटनाओं की परिपूर्णता के लिए भी महत्व रखती है। संगीत के ‘’घराना’’ या विरासत को अक्षुण्ण रखने में गुरुगृह में ही शिष्यों का निवास होना एक समय में आवश्यक हुआ करता था। आज जितनी भी गायन/वादन/नर्तन परम्पराएँ विद्यमान हैं, उनके विकास में यही सिलसिला पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता आ रहा है।

आज के जमाने में संगीत का जो स्तर है, उसको अनुभव करते हुए अनेक प्रश्नों का उपस्थित होना और उसका योग्य निराकरण होना जरूरी  है। आजकल का सबसे अधिक पूछा जानेवाला प्रश्न यह है कि                     

क्या शास्त्रीय संगीत का लोप हो रहा है?

इसका उत्तर ढूँढते समय एक बात को समझना होगा कि संगीत शिक्षा की परम्परा को अखण्डित रखने के लिए आजकल गुरुगृह में रहने की आवश्यकता और व्यवहार्यता नहीं है। कई प्रान्तों में सरकार के द्वारा गुरुकुल चलाए जाते हैं, उनका सारा खर्चा सरकारद्वारा उठाया जाता है, तथा रहने का और आहार व्यवस्था का भी सही प्रबन्ध किया जाता है। दुर्भाग्यवश अन्य सरकारी संस्थानों की तरह ऐसे गुरुकुलों का व्यवस्थापन भी संशय के घेरों में होता है।

अब इतना होने के बाद घरानेदार गायन-वादन की समृद्ध परम्परा क्या आज सही मार्ग से जा रही है? रागदारी संगीत की पूर्वापार सुन्दरता क्या आज भी टिकी है?

इस मुद्दे पर विचार करते समय आधुनिक अर्थव्यवस्था का विचार प्रथम सामने आता है। यद्यपि विनाशुल्क संगीत सिखानेवाले गुरुओं की आज कमी नहीं है, परंतु उनका यथोचित लाभ उठानेवाले शिष्यों की मनोधारणा में बदलाव जरूर आया है। सबसे प्रथम ज्ञानी गुरुओं का अधिक से अधिक समय का सहवास पाने के लिए शिष्य को अपने अन्य व्यवधानों को छोड़ देने की आवश्यकता होती है। आजकल की घड़ी में वह बहुत ही कठिन है।

आधुनिक काल में संगीत का अभ्यासक गुरु के मार्गदर्शन के साथ-साथ इंटरनेट का ढंग से उपयोग कर रहा है। कोरोना के कारण सामाजिक कार्यक्रमों पर बहुत सारे निर्बंध आ जाने से ऑनलाइन महफिलों की नवकल्पना सामने आ गई। अनेक प्रमाणित, सम्मानित तथा सुप्रसिद्ध कलाकारों ने अपना कलाप्रदर्शन फेसबुक लाइव तथा अन्य माध्यमों के जरिए जारी रखा। परंतु श्रोताओं की प्रत्यक्ष उपस्थिती न होने के कारण स्वयंस्फूर्ति का अभाव इसमे दिखाई दिया। ऑनलाइन उपस्थित श्रोतागण “लाइक” और अन्य “स्माइली”ओं का उपयोग करके प्रतिवचन देते हैं, अनुकूल-प्रतिकूल मत प्रदर्शित भी करते हैं। परंतु संगीत की अभिव्यक्ति पर इसका कोई परिणाम होता ही नहीं। कलाकार का रटा-रटाया आविष्कार बिना किसी जान के प्रदर्शित हो जाता है। बहुतबार फेसबुक लाइव का अर्थ भी कलाकार के ज़िंदा होने का एक प्रतीक केवल बन जाता है।

आजकल कई संस्थाओं द्वारा ऐसा संगीत प्रदर्शन “ऑनलाइन पेमेंट” के जरिए प्रस्तुत हो रहा है, जिससे कलाकारों के अर्थार्जन का मार्ग खुल गया है। यद्यपि इन महफिलों का प्रमाण कम है, कुछ कार्य आरम्भ हो चुका है, यह सत्य है।

राग समय के बारे में कुछ विचार

हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में रागों के “योग्य” समय पर गाने-बजाने के बारे में विशेष महत्व दिया गया है। इसके लिए दिन के चार तथा रात्रि के चार प्रहर, यानि आठ प्रहर के राग नियमबद्ध समयसारिणी के अनुसार समझाएँ गए हैं। इसके अलावा सन्धिप्रकाश रागों का भी विशेष वर्णन शास्त्रों में किया गया है। संगीत के अभ्यासक इस नियमावली का कठोरता से पालन करते हैं, यह बहुतांश रूप से देखा जाता है। यह समयचक्र क्या है, तथा इसका वर्णन किस तरह किया गया है इसे देखना बहुत महत्वपूर्ण है। इसी के साथ पूर्व राग और उत्तर राग क्या होते हैं, इसे भी देखना जरूरी है।

आजकल यू ट्यूब, व्हाट्सैप्प, फेसबुक जैसे लोकप्रिय समाज माध्यमों पर संगीत सुननेवालों के ग्रुप्स बन गएँ हैं, तथा दिनभर अनगिनत रागों के रेकार्डिंग्स एक-दूसरे को भेजे जाते हैं। ऐसी हालत में कोई समयानुसार रागों का श्रवण करता हो यह असंभव है। ऐसी अपेक्षा करना भी गलत है। दुर्भाग्यवश आजकल के हालात श्रोताओं के समक्ष संगीत कार्यक्रमों के न होने के हैं।

रागसमय के बंधन को ध्यान में रखते हुए अक्सर कई खास सभाओं का आयोजन किया जाता है, जहाँ केवल सुबह के सत्र होते हैं। बड़े नगरों में “दीपावली की प्रभात” होती है, जहाँ केवल भोर के समय के राग सुनने को मिलते हैं। ऐसे भी आयोजन होते हैं, जहाँ प्रभातसमय के संधिप्रकाश राग, सूरज के उगने के बाद गाए जानेवाले, तथा मध्यान्ह के समय के राग सुनने को मिलते हैं। शाम के सत्र में पूर्व सन्ध्या के समय के, शाम के संधिप्रकाश राग, सूर्यास्त के बाद वाले, रात के समयवाले तथा हो सके तो उत्तर रात्री के राग भी ऐसी सभाओं में श्रोताओं को सुनने को मिलते हैं। परन्तु आजकल समय की पाबन्दी के चलते रागसमय चक्र को सभाओं में अनुभव करना केवल नामुमकिन हो चुका है।

एक जमाना था, जब शाम को आरम्भ हुई संगीतसभा सुबह तक चलती थी। रसिक श्रोतागण बड़े पैमाने पर इसमें शरीक हुआ करते थे। रातभर सुने हुए गायन-वादन की मधुर स्मृतियाँ दूसरे दिन के अपने कार्यकलापों के साथ अपनी स्मृति में जगाकर रात को फिर दूसरी सभा में उपस्थित हुआ करते थे। फिर पूरी रात नए सुरों का मजा लेते लेते सुबह के सत्र में थकावट का नाम भी न लेते हुए बैठे रहते थे। आजकल केवल गिनेचुने संस्थानों में रात-दिन चलनेवाली संगीतसभाएँ आयोजित होती हैं, जैसे माणिकनगर का दरबार, मिरज या कुंदगोल का उत्सव।

ऐसी सभाओं में घरन्दाज गायक-वादकों के बड़ी संख्या में समाविष्ट  होने के कारण जानकार तथा गुणीजनों की उपस्थिती भी अधिक मात्रा में होती है। अप्रचलित तथा हर मेल के, आठों प्रहरों के राग सुनाने का अवसर कलाकारों को भी मिल जाता है। कई बार फर्माइशें भी पूरी हो जाने के कारण संगीत रसिक पूरी तरह तृप्त हो जाते हैं। रसिक श्रोताओं के लिए ऐसी सभाएं तीर्थस्थल बन जाती है।

इस पूरी बात का मूल है समयाधारित रागगायन। प्रातःकालीन रागों से आरम्भ करके आठों प्रहर के कुछ महत्वपूर्ण तथा लोकप्रिय रागों के नाम तथा उनका छोटा विवरण देने की यहाँ कोशिश करेंगे।

शास्त्रीय संगीत सुननेवालों के लिए तथा भारतीय संगीतशास्त्र को समझने की इच्छा रखानेवालों के लिए कुछ महत्वपूर्ण बातें बताने का प्रयास यहाँ किया गया है।

हिंदुस्तानी रागों के मुख्यत: तीन वर्ग हैं।

१ कोमल रे तथा कोमल ध वाले राग

२ शुद्ध रे तथा शुद्धा ध वाले राग

३ कोमल ग तथा कोमल नी वाले राग

पहले वर्ग के रागों को सन्धिप्रकाश के समय गाया/बजाया जाता है।  

 

 

 

प्रभात के संधिप्रकाश राग

                 

 

क्र.१ 

   

नाम

भैरव

रामकली

कालिंगड़ा  

ठाट

भैरव

भैरव

भैरव  

आवश्यक जानकारी - शुद्ध म का प्रयोग

सम्पूर्ण राग, को. रे ध, जनक, आश्रय राग   

भैरव अंग, तीव्र म तथा कोमल नी का प्रयोग

रे और ध पर आंदोलन नहीं होता  

 

 

सायंकालीन संधिप्रकाश राग

 

क्र

 

 

 

नाम

पूर्वी

पूरिया धनाश्री  

श्री

ठाट

पूर्वी  

पूर्वी

 

पूर्वी

आवश्यक जानकारी – तीव्र म का प्रयोग

दोनों म का प्रयोग, जनक, आश्रय राग   

नि रे ग से आरोह प्रारम्भ

 

सा रे म प नि आरोह   

 

 

हर नियम के अपवाद होते हैं। राग का सौंदर्यशास्त्र अलग है, तथा ठाट के नियम अलग हैं। प्रभातकालीन संधिप्रकाश रागों में तोड़ी को भी समाविष्ट किया जाता है, परंतु उसमें तीव्र म का प्रयोग होता है। उसी तरह राग भटियार भी प्रात:कालीन माना जाता है, जो मारवा ठाट का होने के कारण शुद्ध ध को महत्व देता है।

सायंकालीन संधिप्रकाश रागों में  मारवा भी समाविष्ट है, परंतु उसमें शुद्ध ध की बहुलता है। गौरी राग के भैरव तथा पूर्वी अंग के दोनों प्रकार हैं। इस शृंखला में अनेक ऐसे राग हैं, परंतु यहांपर केवल प्रचलित रागों के नाम दिए गएँ हैं।

 

शुद्ध रे ध वाले राग    

संधिप्रकाश रागों के पश्चात शुद्ध रे ध के प्रयोगवाले रागों का समय आरंभ होता है। इसमें भी सुबह तथा शाम के राग समाविष्ट हैं। सुबह के समय इस श्रेणी में बिलावल, देसकार, गौड़सारंग जैसे राग तथा शाम के समय कल्याण के प्रकार, भूपाली जैसे राग सुनने को मिलते हैं।

 

कोमल ग नी वाले राग

शुद्ध रे ध वाले रागों के पश्चात कोमल ग नी वाले रागों की बारी आ जाती है। इसमें भी दिन के तथा रात के समय के रागों को सुनने का आनंद मिलता है। साधारण तौर पर सुबह के दस से चार बजे तक तथा रात के दस से उत्तर रात्री के चार बजे तक इन रागों को सुनने को मिलता है। दिन में जौनपुरी, देसी तथा रात में बागेश्री, बहार तथा कंस के प्रकार सुनने को मिलते हैं।   

 

उत्तर राग तथा पूर्व राग

समयाधारित रागविभाजन के तत्व में रात के बारह से दिन के बारह तक तथा दिन के बारह से रात के बारह बजने तक के समय का विचार रखा गया है। रात से शुरू होकर दिन तक के रागों का वादी स्वर म प, ध नी सां इस सप्तक के उत्तरांग में होता है। उसी प्रकार दिन के बारह से शुरू होनेवाले रागों का वादी स्वर सा रे ग म प इस सप्तक के पूर्वांग में होता है। इसी कारण इन रागों को क्रमश: उत्तर राग या उत्तरांग वादी राग और पूर्व राग या पूर्वांग वादी राग कहा जाता है।

Wednesday, April 30, 2025

श्री शिवरायांचा पोवाडा

 श्री शिवरायांचा पोवाडा

रचना

नंदन हेर्लेकर 


प्रथम वंदुया भारतमाता 

आई भवानी तुळजेला

आणि गुरुजन वंदुन गातो 

मर्दुमकीच्या कवनाला 

जी जी रं जी जी रं जी जी रं जी.....


म्लेंच्छ शक्तिच्या आक्रमणाने फुटली छाती मर्दांची 

लाचारीची, नैराश्याची कशी दुर्गती देशाची

कधी मोगली कधी फिरंगी अब्रू लुटती आर्यांची

बुडे धर्मही ध्वस्त मंदिरे गणति न अत्याचाराची

जी जी रं जी जी रं जी जी रं जी....


फडकला, फडकला, भगवा झेंडा फडकला 

शिवनेरीच्या जरीपटक्याने अवघा देश चेतविला

पेटुन उठला मर्द मराठा, सह्याद्रीही सळसळला

छत्रपती शिवराजा हो ........

छत्रपती शिवराजा बनला नरसिंहाचा नव अवतार

मुजरा करुन गर्वाने गातो मर्दुमकीच्या कवनाला 

जी जी रं जी जी रं जी जी रं जी....


धैर्य नवे देशास मिळाले धार मिळे तलवारीला

मर्दांची मनगटे जाहली बळकट देशसेवेला 

शतकांचा अंधार नष्ट तो झाला उजळे सृष्टीला

शिवरायांच्या जयजयकारे स्फूर्ती मराठभूमीला

म्हणुनी आजही आम्ही गातो मर्दुमकीच्या कवनाला 

जी जी रं जी जी रं जी जी रं जी.......


Friday, April 4, 2025

साथ संगत म्हणजे काय?

 

साथ संगत म्हणजे काय?

सामान्य श्रोता गायन वादन कार्यक्रमात आवश्यक असणाऱ्या तबलासाथीबद्दल खूप औत्सुक्य बाळगून असतो. विशेष  करून तडफदार तान, दमदार आलापी, आणि भरदार स्वर असलेल्या गायनाकरिता उचित तबला साथ असावी लागते. ही ‘उचित’ तबलासाथ कशी असते हे पाहणे देखिल अत्यंत मनोरंजक ठरेल. उसळत्या समुद्राच्या लाटा काळ्याकभिन्न कातळावर धडका मारीत आहेत, असे रौद्र स्वरूप कॅनव्हासवर प्रभावीपणे चितारल्यावर अर्ध्या इंचाची अनाकर्षक पट्टी असलेली फ्रेम शोभून दिसेल का? तसेच आहे ‘उचित’ तबलासाथीचे महत्व!  

 

मुख्य गायक किंवा स्वरवाद्यवादक आणि तालवाद्यावर त्याला साथ देणाऱ्याच्या मनोमीलनाचे ते प्रत्यक्षदर्शी स्वरूप आहे. याठिकाणी तंतुवाद्याची साथ करणाऱ्या तबल्याचे स्थान पाहणेही योग्य ठरेल. सतार-सरोद यासारख्या वाद्यांमध्ये सातत्याने होत असलेली कामगत लयीच्या बरोबरीने आणि वेगवेगळ्या पटीने उमलत असताना ऐकणे हा अत्यानंदाचा भाग आहे. अभ्यासू श्रोत्याच्या मनोवृत्तीच्याही पलीकडे जाणाऱ्या या तबलियाची ग्रहणशक्ती असावी लागते.

 

तसे पाहता साथ आणि संगत हे भिन्न शब्द आहेत. साथ ही गायनाच्या, वादनाच्या लयीप्रमाणे ठेक्याची योजना करून, त्याबरहुकुम ठेका धरणे ही जर साथ मानली तर ठेक्याकडे पाहत पाहत गायन करण्याची सवय असणाऱ्या कलाकाराबरोबर तबलासाथ करणे ही तर कसरतच मानावी लागेल. तय्यार गायक-वादकांबरोबर केवळ ठेका धरून राहणाऱ्या तबलियाचे ‘पात्रत्व’ही असेच असेल. कमी ग्रहणशक्ती, कमी रियाझ, कमी कल्पनाशक्ती अशा सर्व आघाड्यांवर ‘कमी’पणा अशा तबलावादकास श्रोताभिमुख बनण्यास मारक ठरतो. प्रसंगी त्याचे हे रूप अन्य योग्य तबलावादकाच्या अनुपलब्धतेमुळे जास्तच उघडे पडते.

 

याउलट संगत करणारा तबलावादक गायन-वादन कलेचा अथांग सागर पार करू पाहणाऱ्या मनोवृत्तीचा असतो. संगीतकलेतील सर्व ज्ञात बारकावे त्याला अवगत असतात. त्यामुळे तशा तबलियाला उत्तम गुण आणि प्रचंड रियाझ असणाऱ्या गायक-वादकांबरोबर आपली कला सादर करण्यात अपार आनंद मिळत असतो. संगीतकलेचे जे अंतिम ध्येय – मोक्षप्राप्ती याकडे त्याचा त्याला नकळत प्रवास चालू असतो. असा तबलावादक कलाकार खूप मोठ्या मनाचा असावा लागतो. स्वार्थ परित्याग त्याच्या ठिकाणी वसलेला असतो. अशा प्रसंगी मुख्य गायक-वादकाबरोबरीने कलेचे अत्युच्च शिखर गाठण्याची इच्छाच त्याची प्रेरणा बनते.

 

हे झाले उत्कृष्ट कलाकारांबाबत. साधारण प्रतीच्या गायक-वादकांबरोबर त्याला कसोशीचे मनोबंधन पाळावे लागते. कित्येकदा त्याच्या स्वत:च्या प्रतिभेवर कार्यक्रम तारून न्यावा लागतो. त्याला त्यावेळी प्रथम स्थानाची अपेक्षाही नसते. मोठ्या प्रमाणावर संधी असूनही आपले प्रभुत्व तो अशा ठिकाणी प्रकट करत नाही.

 

कित्येक प्रसंगी मात्रा मोजत गाणाऱ्या, ठेक्याकडे पाहत वाजविणाऱ्या कलाकारांसोबत त्याला वाजवावे लागते, तेव्हा त्याला मनाला न पटणाऱ्या तडजोडीही कराव्या लागत असतात. याठिकाणी नेहमी ‘साथ’ करणाऱ्या तबलियाच्या अनुपलब्धतेमुळे त्याला ही भूमिका निभावून न्यावी लागत असते. पण हेही खरे आहे की अस्सलतेचा स्पर्श लाभलेल्यांची संगत त्याला कमी प्रसंगी लाभत असल्यास त्यांचा शोध घेण्यास त्याला बाहेर पडावे लागते. तशा ठिकाणी त्याच्या प्रतिभेला योग्य न्याय मिळत जातो.

 

वर एका ठिकाणी ‘केवळ ठेका वाजवीत राहणे ही साथ’ असे म्हटले गेले आहे. या संदर्भात कांही उदाहरणावरून असे दाखविता येईल की केवळ ठेका वाजवून कांही तबलियांनी अर्थपूर्ण संगत केली आहे. हृदयातील खोलीपर्यंत स्वर पोहोचविणारे आणि एकेका स्वराला पैलुदारपणे अनेक संदर्भ देणारे गंभीररस स्वरसम्राट उस्ताद अमीरखां यांच्या संथ गायनाला लाभलेली उस्ताद महमद अहमद यांनी दिलेली तबला संगत अवश्य ऐका. याचप्रमाणे प्रश्नचिन्हांकित गायकीचे रसज्ञ पं. कुमार गंधर्व यांच्याबरोबर अधिकाधिक प्रसंगी तबलावादन केलेले पं. वसंतराव आचरेकर ही दोन उदाहरणे केवळ ठेक्याचे वजन पेलू शकणाऱ्या आणि लयीचा सखोल ठाव घेऊ पाहणाऱ्या श्रेष्ठ तबलावादकांपैकी आहेत. विलंबित झुमरा, आडा चौताल, विलंबित तीनताल असे नुसते ठेके त्यांच्या गायनाकरिता वाजविले गेले आहेत. सुदैवाने युट्युबवर किंवा रेकॉर्ड्सद्वारे आज आपण ते ऐकू शकतो.

 

सतार, सरोद, संतूर यांसारख्या तंतुवादकांबरोबरची तबलासाथ गायकीच्या साथीहून खूप वेगळी आहे. या तंतकारांच्या सादरीकरणामध्ये प्रथम आलाप, जोड व झाला असतो आणि बहुधा विलंबित तीनतालामध्ये आणि क्वचित रूपक अथवा झपतालामध्ये गत वाजविली जाते. या वाद्यांबरोबर होत असलेली तबलासाथ हा एक वेगळाच विषय आहे. गत सुरु होताच समेवर उठान घेऊन तीनचार आवर्तनाचे गत परन अथवा तत्सम जोमदार बोल तबलावादक वाजवीत असतो आणि आकर्षक रीतीने तिहाई घेऊन पेचदारपणे समेवर येत असतो. त्याच्या बहारदार वादनाने सर्वसामान्य श्रोता आनंदविभोर होऊन जातो. तोवर मुख्य तंतकार मूळ गतीचीच आवर्तने लहऱ्याप्रमाणे वाजवीत असतो. पुढे लयकारीच्या अंदाजाने बढत सुरु होते आणि सुंदर हरकती, तिहाया, चक्करदार तोडे वाजवीत वादक समेवर येतो.

 

प्रतिभावंत तबलावादक अशावेळी आपले कौशल्य, बुद्धि पणाला लावून ठेक्याला मुख्य तंतकाराच्या लयकारीशी पूरकरीतीने नटवून, सजवून, लयकारीच्या हाकेला साजेसे उत्तर देत जवाबी हरकती पेश करत असतो. पुढेपुढे द्रुत लयीमध्ये होणारे सवाल-जवाबही रंजक आणि आव्हानात्मक असतात. अभ्यासू श्रोताही अशावेळी विस्मयचकित होत असतो. समसमा संयोग साधणारे दर्जेदार कलावंत स्वत:चे स्वतंत्र विश्व निर्माण करून त्यामध्ये श्रोत्याला जाणीव-नेणिवेच्या पलीकडे नेत असतात. ऐहिक सुखाचा पूर्णपणे विसर पाडून कर्णाद्वारे स्वरांचे घटच्या घट त्यांना अतीव समाधानाचा अनुभव देत असतात.

 

पुष्कळ तबलावादकांना नेहमी असा अनुभव येत असतो की गायकाने ख्याल सुरु करताच त्याने सुचवलेला ठेका समेवर सुरु केल्यानंतर पुढे आवर्तन पूर्ण होईपर्यंत मात्रा आणि ख्यालातले शब्द यांचे माप कमी-जास्त होत असते. नंतर समेवर येत असताना काहीतरी करून सम साधण्याचे तंत्र उपयोगात आणले जाते. यात डोकावून पाहिले असता दोन गोष्टी लक्षात येतील. एक म्हणजे गायकाला ठेका अवगत असला तरी लयीचे यथायोग्य माप तबलावादकाला सांगता आलेले नसते. दुसरी गोष्ट याउलट म्हणजे तबलियाने केवळ ताल कोणता तेवढेच ऐकलेले असते आणि चीजेची लय कशी आहे ते त्याला कळलेले नसते, किंबहुना गायकाने सांगितलेल्या लयीशी त्याचे संधान साधले गेलेले नसते.

 

याबद्दल हिंदुस्तानी ख्यालगायन पद्धतींमधील काही महत्वाच्या गायनशैली अवलोकिल्या तर लक्षात येईल की कोणतीही चीज असो, गायक ख्यालाची लय साधारणपणे अति विलंबितच ठेवतात. विशेष करून धीमा एकताल या मंडळींचा आवडता ताल आहे आणि लयीचा मापदंडही ठरलेला असतो. अशा वातावरणात वाढलेल्या तबलियाला ख्यालाची साथ करीत असताना कुणाहीबरोबर त्याच लयीत सुरुवात करणे अंगवळणी पडलेले असते. गायक जर त्या लयीत सर्रास न गाणारा असेल त्याला ते अति विलंबित वजन पेलवतेच असे नाही. त्या लयीत त्याला समरस होण्यासाठी ख्यालाचा बराच काळ ओढून काढावा लागत असतो. तबलियाला अशा लयीत फार फरक करणेही सवयीचे नसते. वेगवेगळ्या लयीत वेगवेगळ्या बंदिशी असतात हे कधी त्याने लक्षात घेतलेलेच नसते. त्याला इतकेच माहित असते की ख्यालाची स्थायी, तिचा पूर्ण विस्तार, आकार-इकार इत्यादी पद्धतीने लावलेला दीर्घोच्चारित तार षड्ज आणि त्यानंतर अंतरा; अशी पार्श्वभूमी तयार झाल्यानंतर केवळ समेवर येणारा शब्दोच्चार , मग शक्य तेवढा अंतऱ्याचा विस्तार करून अंतरा पूर्ण म्हणून झाल्यावर स्थायीचा पुनरुच्चार केल्याबरोबर प्रचलित विलंबित लयीची गाणाऱ्याला न विचारताच बरोबर दुगुन करणे. यांत्रिकपणे त्याचा हा व्यवहार त्याच्या अंगवळणी पडून गेलेला असतो. अशा तबलियाच्या मनातील ख्यालाचे तयार झालेले प्रतिबिंब अगदी कधीतरी बदलते. त्यामुळे अशा लयीची सवय नसलेला गायक प्रारंभी दर्शविल्याप्रमाणे मोहरून गाऊ शकत नाही.

वर विस्ताराने दाखवलेली ही वादनशैली काही ठराविक भागातच आहे असे नाही. अखिल हिंदुस्तानात सर्व तऱ्हेची गायकी एकच शहरात ऐकायला मिळेल अशी खूप कमी ठिकाणे आहेत. ज्यावेळी वेगवेगळ्या शैलींच्या गायक-वादकांबरोबर तबलावादक आपला ताळेबंद जमवेल त्यावेळी त्याची नजर चौफेर होऊन ज्याला जशी लय हवी तशी तो देऊ शकेल.

 

आज तबला शिकवणारे वर्ग प्रत्येक शहरात अमाप आहेत. केवळ कलेवर गुजराण करणाऱ्यांचे ‘बरे दिवस’ आले आहेत असे समाधानाने म्हणण्यास काही हरकत नाही. या गुरुमंडळीनी कायदे, रेले, परण, तोडे, चक्रदार गती आणि द्रुतलयीतल्या दमदार-बेदम बंदिशी शिकवतच विलंबित गायन, मध्यलयीतले ख्याल, जयपूर, आग्रा, ग्वाल्हेर आदि गायकीची खास वैशिष्ट्ये समजावून, त्यांना साजेसे ठेके विद्यार्थ्यांकडून संयमाने करवून घेतले पाहिजेत. भरपूर गायन-वादन ऐकवले पाहिजे. रोजच्या बैठकीतच ख्यालाची साथसंगत करण्याचे प्रत्यक्ष धडे दिले पाहिजेत. संगीत संमेलनामध्ये हजेरी लावून ऐकण्याची सक्ती केली पाहिजे. यातूनच मैफिलीचे कलाकार घडणार आहेत हे स्पष्ट आहे.   

 

नंदन हेर्लेकर

 

Sunday, October 13, 2024

मात्रिक छंद आणि वर्णिक छंद.

छंदहीनों न शब्दोस्ति न च्छंदश्श्ब्द वर्जितम् | 

नाट्यशास्त्र 

स्वर आणि काल हे ध्वनीचे दोन स्तंभ आहेत. स्वरतत्व संगीतात आणि काव्यात अंतर्भूत असते. तालतत्व ताल आणि छंदात स्पष्ट होऊन ते स्वयंभू प्रकट होतात. ताल आणि छंद याचा हा संबंध इतका जवळचा आहे. स्वरतत्व स्वरांच्या विभिन्न स्वरूपात (जसे स्वरालंकार) आणि कालतत्व लयतालाच्या विभिन्न स्वरूपात (विविध मात्रांचे ताल) सर्वांच्या अनुभवाला येत असते. नियमित अभ्यासकाला याचे प्रत्यंतर नेहमी येत असतेच. गद्य बोलण्यात स्वर आणि काल अनियमित असतात. संगीतात मात्र ते नियमबद्ध स्वरूपात प्रकट होत असतात. काव्यात छंदाचे महत्त्व दिसते आणि संगीतात तालाचे. म्हणूनच प्रत्येक संगीतरचना तालबद्ध असते आणि प्रत्येक कविता छंदोबद्ध असते. (मुक्तछंद हा प्रकार वेगळा, तो विषय येथे नाही!!) छंद काव्याचा आणि ताल संगीताचा मापक म्हणून प्रकट होतो. भरतमुनींनी व्यापक रुपात स्वरतत्व शब्दात आणि कालतत्व छंदात सांगून दोन्ही अभिन्न असल्याचे सांगितले आहे. तालाने संगीत अनुशासित बनत असते तर छंदाने काव्य अनुशासित बनत असते. छंदाचे दोन प्रकार भरतमुनींनी सांगितले आहेत. मात्रिक छंद आणि वर्णिक छंद. मात्रांवर आधारित छंद हे मात्रिक आणि वर्णांवर आधारित हे वर्णिक म्हटले जातात. म्हणजेच ह्रस्व - दीर्घ किंवा लघु - गुरु या आधारावर लयीला विशेष आकार स्वरूप प्राप्त होत असते. तेव्हाच त्याला छंद म्हटले जाते. लयबद्धता हीच त्याची विशेषता असते. 

अर्थसंपन्न काव्यामध्ये जशी लयबद्धता असते तशीच ती निरर्थक काव्यामध्येही (या ठिकाणी निरर्थक म्हणजे अर्थाची अपेक्षा नसलेले काव्य) असते, शब्दरहित रचनेमध्येसुद्धा असते. (जसा तराना). उत्तर भारतीय साहित्यात चौपाई, दोहा, हरिगीतिका, रोला, छप्पय, कुंडलिया हे मात्रिक छंद गणले जातात, तर मालिका, मंदक्रांता, तोडक, धनाक्षरी, सवैय्या हे वर्णिक छंद आहेत. छंदाला लयबद्धता असणे महत्त्वाचे. त्यात सार्थक रचना किंवा निरर्थक रचनाही असू शकते. स्वर आणि ताल हे संगीताचे दोन अनन्यसाधारण घटक आहेत. याचबरोबर गायनामध्ये तिसरा महत्त्वाचा घटक म्हणजे कविता असते. 

कविता वाचन हे स्वतंत्र रूपाने छंदाची अनुभूती देते पण तिचे गायन होते तेव्हा त्यातला मूळ छंद लुप्त होऊ शकतो आणि तिच्यातून नव्या तालछंदाची अनुभूती यायला लागते. मग ती रूपक, दादरा, तीनताल, अथवा कोणत्याही तालात गाता येते, आवश्यकतेनुसार ह्रस्व, दीर्घ, छोटे, मोठे उच्चार तयार होतात. उपयोगात आणलेल्या तालाचा नवा छंद निर्माण होतो. म्हणजेच ज्या तालात कविता गावी तो तचा छंद बनतो. 

धृपदगायनापूर्वी प्रबंध होते, ते छंदोबद्ध होते. तोटक, दंडक, झंपट, सिंहपद, गाथा, आर्या असे प्रबंध आपल्या नावामधल्या छंदात गायले जात. प्रबंधामध्ये याशिवाय इतरही अनेक छंद होते. कवि जयदेवाच्या गीतगोविंदमध्ये अनेक छंदांचा उपयोग झाला आहे. संगीत आणि काव्य या दोन्हींचा त्यात कल्पक समावेश आहे. परंतु प्रबंध गायनामधली अत्याधिक लांबलचक पदे, त्यांचं असाधारण महत्त्व, पदांची क्लिष्टता, काव्यगुणापेक्षा स्वरतत्वावरील अधिक परिवर्तन आदि कारणामुळे त्यांची जागा धृपद गायनाने घेतली. प्रबंधाच्या तुलनेत धृपद गायनातली संक्षिप्तता, सरलता, पद आणि तालांची विभिन्नता, गेयता यामुळे धृपद गायनाचा राजदरबारात प्रवेश सहज झाला. धनाक्षरी छंदाचा उपयोग धृपदात परिवर्तीत झाला, म्हणजेच चारतालात झाला. त्यात 31-31 अक्षरांचे 4 चरण धृपदात रचले गेले. त्याचेच स्थायी, अंतरा, संचारी आणि आभोग बनले. धनाक्षरीचे परिवर्तन चारतालमध्ये होण्यासाठी बरेच बदल करावे लागले. परंतु यातली सगळीच पदे परिवर्तीत झाली नाहीत. ती मूळ स्थितीत तशीच गायली गेली. 

धृपदानंतर शास्त्रीय संगीत क्षेत्रात प्रविष्ट झालेल्या ख्याल संगीतात गायली गेलेली पदे मूळ छन्दांशी बहुधा फारकत घेतानाच दिसतात. बडा ख्याल गाताना मुळातल्या कवितेच्या छंदाला छेद जातो, तो कधीकधी नष्ट होतो, शब्दांची खेचाखेच करून, कधी हृस्वाचे दीर्घ, तर दीर्घाचे ह्रस्व करून, कित्येकदा शब्द्श्चेद करून, ते अर्थविहीन करून ते कसेही गायले जातात. मूळ कवितेत छानसा छंद असला तरी एकतर तो नष्ट होतो, नाहीतर तो व्यवस्थित अनुभवला जात नाही. स्वर अलंकार छंदोबद्ध असतात, पण त्यांचा उपयोग केला जात नाही, त्याच्या स्वररचना तालबद्ध करून सादर केल्या जात नाहीत. त्यात सुंदर छंद असतात पण पूर्णपणे दुर्लक्षित असतात. 

वानगीदाखल काही उदाहरणे पाहू. 

मात्रिक गण 

१. सरेग s रेगम s गमप s मपध s पधनी s धनीसां s चिन्हे - IIS लघु लघु गुरू (स गण) 

२. सारेसा रेगरे गमग मपम पधप धनीध नीसांनी चिन्हे - III लघु लघु लघु (न गण) 

३. साSसासा रेSरेरे गSगग मSमम पSपप धSधध नीSनीनी सां Sसांसां चिन्हे - SII गुरू लघु लघु (भ गण) 

४. सारेSग रेगSम गमSप मपSध पधSनी धनीSसां चिन्हे - ISI लघु गुरू लघु (ज गण) 

५. रेSसारेS गSरेगS मSगमS पSमपS धSपधS नीSधनीS चिन्हे - SIS गुरू लघु गुरू(र गण) 

वर्णिक गण 

१. सारेसा रेगरे गमग मपम पधप धनीध नीसांनी - त्रिमात्रिक 

२. सारेगरे रेगमग गमपम मपधप पधनीध धनीसांनी - चातुर्मात्रिक 

३. सारेगरेसा रेगमगरे गमपमग मपधपम पधनीधप धनीसांनीध - पंचमात्रिक 

तसे षष्ठमात्रिक, सप्तमात्रिक वगैरे अलंकार बनले.

Tuesday, May 14, 2024

हिन्दुस्तानी ताल से रसनिर्मिति

रसनिर्मिति हिन्दुस्तानी संगीत का स्थायीभाव है| स्वरों जैसा ताल भी रसनिर्मिति करनेवाला एक महत्वपूर्ण घटक है| गंभीर, शांत, करुण-दुःख यह रस विलंबित लय से प्रकट होते हैं| अतिआनंद, उत्सुकता, मनविभोरता जैसे रस द्रुतलय से प्रकट होते हैं| रसनिर्मिति के लिए पोषक लय का प्रकटीकरण उत्तम तबलावादक कर सकता है| विवक्षित मात्रासंख्यावाले तालोंद्वारा विविध लयों के आधारपर प्रस्तुत होनेवाला स्वतन्त्र तबलावादन प्रभावशाली रसनिर्मिति कर सकता है, यह हम नित्य रूप से देखते हैं| विलंबितलय में प्रस्तुत होनेवाला पेशकार तबलावादक के मन में उमड़ती असंख्य कल्पनाओं को प्रकट करते हुए भी अपना शांत स्वरूप छोड़ता नहीं, यही इस बात की पुष्टि देता है| द्रुतलय के चक्करदार तोड़े, गत-परन, गत–मुखड़े, रेले हमें आनंद की चरम सीमा तक ले जाते हैं, यह भी सत्य है| दक्षिणात्य कृति अथवा पश्चिमी सिम्फनी का सादरीकरण एक तरफ, और अपनी बुद्धिनिष्ठा से हिन्दुस्तानी संगीत कलाकार ने की हुई मनघडाई देखने-सुनने के बाद इन सब में रसनिर्मिति के लिए हिन्दुस्तानी संगीत कितना परिणामकारी सिद्ध होता है, इस बात का पता चलता है| इसी पद्धति का एक आवश्यक और महत्वपूर्ण भाग यानि तबलावादन की कला भी स्वतन्त्र रूपसे रंजनक्षम है, यह भी सिद्ध है|....................................................................................................................................................... ‘श्रुतिर्माता लय:पिता' ............................................................................................................................................................................................................................................................................................................... इस उक्ति के अनुसार उत्कृष्ट गायक-वादक स्वर-लय के उत्कृष्ट मिलाफ से प्रतिसृष्टि का निर्माण करते हैं| इन्हीं माता-पिताओं के आश्रय में उनका स्वच्छंद विलास महफ़िल में प्रकट होता है| तालवाद्यवादक भी इन्हीं माता-पिताओं का आधार का लेते हुए साथ-संगत हो, या स्वतन्त्र वादन, सुन्दर छोटे-बड़े मुखड़ों-टुकड़ों से, या कायदे में से प्रमाणबद्ध हरकतों के प्रयोग से समपर आते समय उत्कंठा और परिपूर्ति की शृंखलाएं रसिकों के समक्ष प्रस्तुत करते हैं| लय को तालबद्ध करके उसमें से विभाग, ताली, खाली इन योजनाओं के द्वारा सुगमता निर्माण होती है| इस सुविधा के कारण ही गायक या स्वरवाद्य वादक अपनी कला लोकाभिमुख कर सकते हैं| इसी सुविधा के आधार से गायक या वादक ‘हम कहाँ हैं? का निश्चित स्थान’ समझ सकते हैं| उनके सही ‘अंदाज’ से ‘समपर’ आने की उनकी सौन्दर्य दृष्टि का प्रत्यंतर रसिकों को आता है| संगीतका प्राण लय में ही समाविष्ट होता है| अगर लय का अंदाज न हो तो स्वरों की उच्छ्रुन्खल सृष्टि में कलाकार भटकता रहेगा| विलंबित, मध्य एवं द्रुत लय के आधार पर ही स्वरों का कल्पनाविलास क्रमश: होते रहता है| ख्याल सजता रहता है| .................................................................................................................................................................... रुक्ष गणित, पर अचम्भित कलाविष्कार ............................................................................................................................................................................................................................................................................................................... एक दृष्टी से देखा जाएँ तो गणिततत्व पर आधारित तालव्याकरण, प्रस्तारविधि और हररोज अनेक घंटों की पसीना निकालनेवाली मेहनत की अपेक्षा करनेवाला यह संगीत का अत्यंत रुक्ष प्रकार है| परन्तु संख्याओं का यह व्याकरण प्रखर मेहनत से और दूरदृष्टी से करने के बाद जो अचंभित कर देनेवाली कला उत्पन्न होती है, उसे दुनिया की किसी भी कला से भी उच्च स्थान मिला है| हाथ की केवल दो-तीन उँगलियों का प्रयोग करके तबले के वर्णों का निकास होता है| अधिक जोर के लिए भी कभी पूरे हाथों का ढोल की तरह प्रयोग नहीँ होता| दायाँ-बायाँ हाथ कभी भी विवक्षित ऊंचाई के ऊपर जाता नहीं| होठों को चबा कर, चेहरेको विद्रुप बनाकर कभी तबले पर टूट पड़नेवाला दृश्य दिखता नहीं| वादक के वीरासन में या सीधी बैठक में भी कभी अंतर नहीं पड़ता| अनभिज्ञों को इस कठोर तपस्या की कभी कल्पना नहीं होती| उससे उत्पन्न आनंद का वह एक सहचारी मात्र होता है|