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Friday, May 23, 2025

राग समय के बारे में

 

संगीत श्रोतावलम्बी कला है। गायन, वादन या नर्तन की प्रस्तुति रसिकों, गुनिजनों या ज्ञानी अभ्यासकों के समक्ष हों तो कलाकार की अभिव्यक्ति में चार चाँद लग जाते हैं। ‘’स्वांत:सुखाय’’ संगीतराधना केवल रियाज़ के समय ठीक है। ऐसे भी कलाकार हैं, जिन्हे अपने रियाज़ के समय भी श्रोताओं की उपस्थिति आवश्यक लगती है। जब गुरुजन अपना रियाज़ करते हैं तब अन्य श्रोताओं के बजाय केवल शिष्यों का होना दोनों पक्षों के लिए अनुकूल होता है। वैसे संगीत की शिक्षा ‘’सीना ब सीना’’ होने की परम्परा है। गुरू-शिष्यों के सह जीवनक्रम की आवश्यकता संगीतविद्याग्रहण के साथ-साथ शिष्य के  अन्य जीवनावश्यक घटनाओं की परिपूर्णता के लिए भी महत्व रखती है। संगीत के ‘’घराना’’ या विरासत को अक्षुण्ण रखने में गुरुगृह में ही शिष्यों का निवास होना एक समय में आवश्यक हुआ करता था। आज जितनी भी गायन/वादन/नर्तन परम्पराएँ विद्यमान हैं, उनके विकास में यही सिलसिला पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता आ रहा है।

आज के जमाने में संगीत का जो स्तर है, उसको अनुभव करते हुए अनेक प्रश्नों का उपस्थित होना और उसका योग्य निराकरण होना जरूरी  है। आजकल का सबसे अधिक पूछा जानेवाला प्रश्न यह है कि                     

क्या शास्त्रीय संगीत का लोप हो रहा है?

इसका उत्तर ढूँढते समय एक बात को समझना होगा कि संगीत शिक्षा की परम्परा को अखण्डित रखने के लिए आजकल गुरुगृह में रहने की आवश्यकता और व्यवहार्यता नहीं है। कई प्रान्तों में सरकार के द्वारा गुरुकुल चलाए जाते हैं, उनका सारा खर्चा सरकारद्वारा उठाया जाता है, तथा रहने का और आहार व्यवस्था का भी सही प्रबन्ध किया जाता है। दुर्भाग्यवश अन्य सरकारी संस्थानों की तरह ऐसे गुरुकुलों का व्यवस्थापन भी संशय के घेरों में होता है।

अब इतना होने के बाद घरानेदार गायन-वादन की समृद्ध परम्परा क्या आज सही मार्ग से जा रही है? रागदारी संगीत की पूर्वापार सुन्दरता क्या आज भी टिकी है?

इस मुद्दे पर विचार करते समय आधुनिक अर्थव्यवस्था का विचार प्रथम सामने आता है। यद्यपि विनाशुल्क संगीत सिखानेवाले गुरुओं की आज कमी नहीं है, परंतु उनका यथोचित लाभ उठानेवाले शिष्यों की मनोधारणा में बदलाव जरूर आया है। सबसे प्रथम ज्ञानी गुरुओं का अधिक से अधिक समय का सहवास पाने के लिए शिष्य को अपने अन्य व्यवधानों को छोड़ देने की आवश्यकता होती है। आजकल की घड़ी में वह बहुत ही कठिन है।

आधुनिक काल में संगीत का अभ्यासक गुरु के मार्गदर्शन के साथ-साथ इंटरनेट का ढंग से उपयोग कर रहा है। कोरोना के कारण सामाजिक कार्यक्रमों पर बहुत सारे निर्बंध आ जाने से ऑनलाइन महफिलों की नवकल्पना सामने आ गई। अनेक प्रमाणित, सम्मानित तथा सुप्रसिद्ध कलाकारों ने अपना कलाप्रदर्शन फेसबुक लाइव तथा अन्य माध्यमों के जरिए जारी रखा। परंतु श्रोताओं की प्रत्यक्ष उपस्थिती न होने के कारण स्वयंस्फूर्ति का अभाव इसमे दिखाई दिया। ऑनलाइन उपस्थित श्रोतागण “लाइक” और अन्य “स्माइली”ओं का उपयोग करके प्रतिवचन देते हैं, अनुकूल-प्रतिकूल मत प्रदर्शित भी करते हैं। परंतु संगीत की अभिव्यक्ति पर इसका कोई परिणाम होता ही नहीं। कलाकार का रटा-रटाया आविष्कार बिना किसी जान के प्रदर्शित हो जाता है। बहुतबार फेसबुक लाइव का अर्थ भी कलाकार के ज़िंदा होने का एक प्रतीक केवल बन जाता है।

आजकल कई संस्थाओं द्वारा ऐसा संगीत प्रदर्शन “ऑनलाइन पेमेंट” के जरिए प्रस्तुत हो रहा है, जिससे कलाकारों के अर्थार्जन का मार्ग खुल गया है। यद्यपि इन महफिलों का प्रमाण कम है, कुछ कार्य आरम्भ हो चुका है, यह सत्य है।

राग समय के बारे में कुछ विचार

हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में रागों के “योग्य” समय पर गाने-बजाने के बारे में विशेष महत्व दिया गया है। इसके लिए दिन के चार तथा रात्रि के चार प्रहर, यानि आठ प्रहर के राग नियमबद्ध समयसारिणी के अनुसार समझाएँ गए हैं। इसके अलावा सन्धिप्रकाश रागों का भी विशेष वर्णन शास्त्रों में किया गया है। संगीत के अभ्यासक इस नियमावली का कठोरता से पालन करते हैं, यह बहुतांश रूप से देखा जाता है। यह समयचक्र क्या है, तथा इसका वर्णन किस तरह किया गया है इसे देखना बहुत महत्वपूर्ण है। इसी के साथ पूर्व राग और उत्तर राग क्या होते हैं, इसे भी देखना जरूरी है।

आजकल यू ट्यूब, व्हाट्सैप्प, फेसबुक जैसे लोकप्रिय समाज माध्यमों पर संगीत सुननेवालों के ग्रुप्स बन गएँ हैं, तथा दिनभर अनगिनत रागों के रेकार्डिंग्स एक-दूसरे को भेजे जाते हैं। ऐसी हालत में कोई समयानुसार रागों का श्रवण करता हो यह असंभव है। ऐसी अपेक्षा करना भी गलत है। दुर्भाग्यवश आजकल के हालात श्रोताओं के समक्ष संगीत कार्यक्रमों के न होने के हैं।

रागसमय के बंधन को ध्यान में रखते हुए अक्सर कई खास सभाओं का आयोजन किया जाता है, जहाँ केवल सुबह के सत्र होते हैं। बड़े नगरों में “दीपावली की प्रभात” होती है, जहाँ केवल भोर के समय के राग सुनने को मिलते हैं। ऐसे भी आयोजन होते हैं, जहाँ प्रभातसमय के संधिप्रकाश राग, सूरज के उगने के बाद गाए जानेवाले, तथा मध्यान्ह के समय के राग सुनने को मिलते हैं। शाम के सत्र में पूर्व सन्ध्या के समय के, शाम के संधिप्रकाश राग, सूर्यास्त के बाद वाले, रात के समयवाले तथा हो सके तो उत्तर रात्री के राग भी ऐसी सभाओं में श्रोताओं को सुनने को मिलते हैं। परन्तु आजकल समय की पाबन्दी के चलते रागसमय चक्र को सभाओं में अनुभव करना केवल नामुमकिन हो चुका है।

एक जमाना था, जब शाम को आरम्भ हुई संगीतसभा सुबह तक चलती थी। रसिक श्रोतागण बड़े पैमाने पर इसमें शरीक हुआ करते थे। रातभर सुने हुए गायन-वादन की मधुर स्मृतियाँ दूसरे दिन के अपने कार्यकलापों के साथ अपनी स्मृति में जगाकर रात को फिर दूसरी सभा में उपस्थित हुआ करते थे। फिर पूरी रात नए सुरों का मजा लेते लेते सुबह के सत्र में थकावट का नाम भी न लेते हुए बैठे रहते थे। आजकल केवल गिनेचुने संस्थानों में रात-दिन चलनेवाली संगीतसभाएँ आयोजित होती हैं, जैसे माणिकनगर का दरबार, मिरज या कुंदगोल का उत्सव।

ऐसी सभाओं में घरन्दाज गायक-वादकों के बड़ी संख्या में समाविष्ट  होने के कारण जानकार तथा गुणीजनों की उपस्थिती भी अधिक मात्रा में होती है। अप्रचलित तथा हर मेल के, आठों प्रहरों के राग सुनाने का अवसर कलाकारों को भी मिल जाता है। कई बार फर्माइशें भी पूरी हो जाने के कारण संगीत रसिक पूरी तरह तृप्त हो जाते हैं। रसिक श्रोताओं के लिए ऐसी सभाएं तीर्थस्थल बन जाती है।

इस पूरी बात का मूल है समयाधारित रागगायन। प्रातःकालीन रागों से आरम्भ करके आठों प्रहर के कुछ महत्वपूर्ण तथा लोकप्रिय रागों के नाम तथा उनका छोटा विवरण देने की यहाँ कोशिश करेंगे।

शास्त्रीय संगीत सुननेवालों के लिए तथा भारतीय संगीतशास्त्र को समझने की इच्छा रखानेवालों के लिए कुछ महत्वपूर्ण बातें बताने का प्रयास यहाँ किया गया है।

हिंदुस्तानी रागों के मुख्यत: तीन वर्ग हैं।

१ कोमल रे तथा कोमल ध वाले राग

२ शुद्ध रे तथा शुद्धा ध वाले राग

३ कोमल ग तथा कोमल नी वाले राग

पहले वर्ग के रागों को सन्धिप्रकाश के समय गाया/बजाया जाता है।  

 

 

 

प्रभात के संधिप्रकाश राग

                 

 

क्र.१ 

   

नाम

भैरव

रामकली

कालिंगड़ा  

ठाट

भैरव

भैरव

भैरव  

आवश्यक जानकारी - शुद्ध म का प्रयोग

सम्पूर्ण राग, को. रे ध, जनक, आश्रय राग   

भैरव अंग, तीव्र म तथा कोमल नी का प्रयोग

रे और ध पर आंदोलन नहीं होता  

 

 

सायंकालीन संधिप्रकाश राग

 

क्र

 

 

 

नाम

पूर्वी

पूरिया धनाश्री  

श्री

ठाट

पूर्वी  

पूर्वी

 

पूर्वी

आवश्यक जानकारी – तीव्र म का प्रयोग

दोनों म का प्रयोग, जनक, आश्रय राग   

नि रे ग से आरोह प्रारम्भ

 

सा रे म प नि आरोह   

 

 

हर नियम के अपवाद होते हैं। राग का सौंदर्यशास्त्र अलग है, तथा ठाट के नियम अलग हैं। प्रभातकालीन संधिप्रकाश रागों में तोड़ी को भी समाविष्ट किया जाता है, परंतु उसमें तीव्र म का प्रयोग होता है। उसी तरह राग भटियार भी प्रात:कालीन माना जाता है, जो मारवा ठाट का होने के कारण शुद्ध ध को महत्व देता है।

सायंकालीन संधिप्रकाश रागों में  मारवा भी समाविष्ट है, परंतु उसमें शुद्ध ध की बहुलता है। गौरी राग के भैरव तथा पूर्वी अंग के दोनों प्रकार हैं। इस शृंखला में अनेक ऐसे राग हैं, परंतु यहांपर केवल प्रचलित रागों के नाम दिए गएँ हैं।

 

शुद्ध रे ध वाले राग    

संधिप्रकाश रागों के पश्चात शुद्ध रे ध के प्रयोगवाले रागों का समय आरंभ होता है। इसमें भी सुबह तथा शाम के राग समाविष्ट हैं। सुबह के समय इस श्रेणी में बिलावल, देसकार, गौड़सारंग जैसे राग तथा शाम के समय कल्याण के प्रकार, भूपाली जैसे राग सुनने को मिलते हैं।

 

कोमल ग नी वाले राग

शुद्ध रे ध वाले रागों के पश्चात कोमल ग नी वाले रागों की बारी आ जाती है। इसमें भी दिन के तथा रात के समय के रागों को सुनने का आनंद मिलता है। साधारण तौर पर सुबह के दस से चार बजे तक तथा रात के दस से उत्तर रात्री के चार बजे तक इन रागों को सुनने को मिलता है। दिन में जौनपुरी, देसी तथा रात में बागेश्री, बहार तथा कंस के प्रकार सुनने को मिलते हैं।   

 

उत्तर राग तथा पूर्व राग

समयाधारित रागविभाजन के तत्व में रात के बारह से दिन के बारह तक तथा दिन के बारह से रात के बारह बजने तक के समय का विचार रखा गया है। रात से शुरू होकर दिन तक के रागों का वादी स्वर म प, ध नी सां इस सप्तक के उत्तरांग में होता है। उसी प्रकार दिन के बारह से शुरू होनेवाले रागों का वादी स्वर सा रे ग म प इस सप्तक के पूर्वांग में होता है। इसी कारण इन रागों को क्रमश: उत्तर राग या उत्तरांग वादी राग और पूर्व राग या पूर्वांग वादी राग कहा जाता है।

Wednesday, April 30, 2025

श्री शिवरायांचा पोवाडा

 श्री शिवरायांचा पोवाडा

रचना

नंदन हेर्लेकर 


प्रथम वंदुया भारतमाता 

आई भवानी तुळजेला

आणि गुरुजन वंदुन गातो 

मर्दुमकीच्या कवनाला 

जी जी रं जी जी रं जी जी रं जी.....


म्लेंच्छ शक्तिच्या आक्रमणाने फुटली छाती मर्दांची 

लाचारीची, नैराश्याची कशी दुर्गती देशाची

कधी मोगली कधी फिरंगी अब्रू लुटती आर्यांची

बुडे धर्मही ध्वस्त मंदिरे गणति न अत्याचाराची

जी जी रं जी जी रं जी जी रं जी....


फडकला, फडकला, भगवा झेंडा फडकला 

शिवनेरीच्या जरीपटक्याने अवघा देश चेतविला

पेटुन उठला मर्द मराठा, सह्याद्रीही सळसळला

छत्रपती शिवराजा हो ........

छत्रपती शिवराजा बनला नरसिंहाचा नव अवतार

मुजरा करुन गर्वाने गातो मर्दुमकीच्या कवनाला 

जी जी रं जी जी रं जी जी रं जी....


धैर्य नवे देशास मिळाले धार मिळे तलवारीला

मर्दांची मनगटे जाहली बळकट देशसेवेला 

शतकांचा अंधार नष्ट तो झाला उजळे सृष्टीला

शिवरायांच्या जयजयकारे स्फूर्ती मराठभूमीला

म्हणुनी आजही आम्ही गातो मर्दुमकीच्या कवनाला 

जी जी रं जी जी रं जी जी रं जी.......


Friday, April 4, 2025

साथ संगत म्हणजे काय?

 

साथ संगत म्हणजे काय?

सामान्य श्रोता गायन वादन कार्यक्रमात आवश्यक असणाऱ्या तबलासाथीबद्दल खूप औत्सुक्य बाळगून असतो. विशेष  करून तडफदार तान, दमदार आलापी, आणि भरदार स्वर असलेल्या गायनाकरिता उचित तबला साथ असावी लागते. ही ‘उचित’ तबलासाथ कशी असते हे पाहणे देखिल अत्यंत मनोरंजक ठरेल. उसळत्या समुद्राच्या लाटा काळ्याकभिन्न कातळावर धडका मारीत आहेत, असे रौद्र स्वरूप कॅनव्हासवर प्रभावीपणे चितारल्यावर अर्ध्या इंचाची अनाकर्षक पट्टी असलेली फ्रेम शोभून दिसेल का? तसेच आहे ‘उचित’ तबलासाथीचे महत्व!  

 

मुख्य गायक किंवा स्वरवाद्यवादक आणि तालवाद्यावर त्याला साथ देणाऱ्याच्या मनोमीलनाचे ते प्रत्यक्षदर्शी स्वरूप आहे. याठिकाणी तंतुवाद्याची साथ करणाऱ्या तबल्याचे स्थान पाहणेही योग्य ठरेल. सतार-सरोद यासारख्या वाद्यांमध्ये सातत्याने होत असलेली कामगत लयीच्या बरोबरीने आणि वेगवेगळ्या पटीने उमलत असताना ऐकणे हा अत्यानंदाचा भाग आहे. अभ्यासू श्रोत्याच्या मनोवृत्तीच्याही पलीकडे जाणाऱ्या या तबलियाची ग्रहणशक्ती असावी लागते.

 

तसे पाहता साथ आणि संगत हे भिन्न शब्द आहेत. साथ ही गायनाच्या, वादनाच्या लयीप्रमाणे ठेक्याची योजना करून, त्याबरहुकुम ठेका धरणे ही जर साथ मानली तर ठेक्याकडे पाहत पाहत गायन करण्याची सवय असणाऱ्या कलाकाराबरोबर तबलासाथ करणे ही तर कसरतच मानावी लागेल. तय्यार गायक-वादकांबरोबर केवळ ठेका धरून राहणाऱ्या तबलियाचे ‘पात्रत्व’ही असेच असेल. कमी ग्रहणशक्ती, कमी रियाझ, कमी कल्पनाशक्ती अशा सर्व आघाड्यांवर ‘कमी’पणा अशा तबलावादकास श्रोताभिमुख बनण्यास मारक ठरतो. प्रसंगी त्याचे हे रूप अन्य योग्य तबलावादकाच्या अनुपलब्धतेमुळे जास्तच उघडे पडते.

 

याउलट संगत करणारा तबलावादक गायन-वादन कलेचा अथांग सागर पार करू पाहणाऱ्या मनोवृत्तीचा असतो. संगीतकलेतील सर्व ज्ञात बारकावे त्याला अवगत असतात. त्यामुळे तशा तबलियाला उत्तम गुण आणि प्रचंड रियाझ असणाऱ्या गायक-वादकांबरोबर आपली कला सादर करण्यात अपार आनंद मिळत असतो. संगीतकलेचे जे अंतिम ध्येय – मोक्षप्राप्ती याकडे त्याचा त्याला नकळत प्रवास चालू असतो. असा तबलावादक कलाकार खूप मोठ्या मनाचा असावा लागतो. स्वार्थ परित्याग त्याच्या ठिकाणी वसलेला असतो. अशा प्रसंगी मुख्य गायक-वादकाबरोबरीने कलेचे अत्युच्च शिखर गाठण्याची इच्छाच त्याची प्रेरणा बनते.

 

हे झाले उत्कृष्ट कलाकारांबाबत. साधारण प्रतीच्या गायक-वादकांबरोबर त्याला कसोशीचे मनोबंधन पाळावे लागते. कित्येकदा त्याच्या स्वत:च्या प्रतिभेवर कार्यक्रम तारून न्यावा लागतो. त्याला त्यावेळी प्रथम स्थानाची अपेक्षाही नसते. मोठ्या प्रमाणावर संधी असूनही आपले प्रभुत्व तो अशा ठिकाणी प्रकट करत नाही.

 

कित्येक प्रसंगी मात्रा मोजत गाणाऱ्या, ठेक्याकडे पाहत वाजविणाऱ्या कलाकारांसोबत त्याला वाजवावे लागते, तेव्हा त्याला मनाला न पटणाऱ्या तडजोडीही कराव्या लागत असतात. याठिकाणी नेहमी ‘साथ’ करणाऱ्या तबलियाच्या अनुपलब्धतेमुळे त्याला ही भूमिका निभावून न्यावी लागत असते. पण हेही खरे आहे की अस्सलतेचा स्पर्श लाभलेल्यांची संगत त्याला कमी प्रसंगी लाभत असल्यास त्यांचा शोध घेण्यास त्याला बाहेर पडावे लागते. तशा ठिकाणी त्याच्या प्रतिभेला योग्य न्याय मिळत जातो.

 

वर एका ठिकाणी ‘केवळ ठेका वाजवीत राहणे ही साथ’ असे म्हटले गेले आहे. या संदर्भात कांही उदाहरणावरून असे दाखविता येईल की केवळ ठेका वाजवून कांही तबलियांनी अर्थपूर्ण संगत केली आहे. हृदयातील खोलीपर्यंत स्वर पोहोचविणारे आणि एकेका स्वराला पैलुदारपणे अनेक संदर्भ देणारे गंभीररस स्वरसम्राट उस्ताद अमीरखां यांच्या संथ गायनाला लाभलेली उस्ताद महमद अहमद यांनी दिलेली तबला संगत अवश्य ऐका. याचप्रमाणे प्रश्नचिन्हांकित गायकीचे रसज्ञ पं. कुमार गंधर्व यांच्याबरोबर अधिकाधिक प्रसंगी तबलावादन केलेले पं. वसंतराव आचरेकर ही दोन उदाहरणे केवळ ठेक्याचे वजन पेलू शकणाऱ्या आणि लयीचा सखोल ठाव घेऊ पाहणाऱ्या श्रेष्ठ तबलावादकांपैकी आहेत. विलंबित झुमरा, आडा चौताल, विलंबित तीनताल असे नुसते ठेके त्यांच्या गायनाकरिता वाजविले गेले आहेत. सुदैवाने युट्युबवर किंवा रेकॉर्ड्सद्वारे आज आपण ते ऐकू शकतो.

 

सतार, सरोद, संतूर यांसारख्या तंतुवादकांबरोबरची तबलासाथ गायकीच्या साथीहून खूप वेगळी आहे. या तंतकारांच्या सादरीकरणामध्ये प्रथम आलाप, जोड व झाला असतो आणि बहुधा विलंबित तीनतालामध्ये आणि क्वचित रूपक अथवा झपतालामध्ये गत वाजविली जाते. या वाद्यांबरोबर होत असलेली तबलासाथ हा एक वेगळाच विषय आहे. गत सुरु होताच समेवर उठान घेऊन तीनचार आवर्तनाचे गत परन अथवा तत्सम जोमदार बोल तबलावादक वाजवीत असतो आणि आकर्षक रीतीने तिहाई घेऊन पेचदारपणे समेवर येत असतो. त्याच्या बहारदार वादनाने सर्वसामान्य श्रोता आनंदविभोर होऊन जातो. तोवर मुख्य तंतकार मूळ गतीचीच आवर्तने लहऱ्याप्रमाणे वाजवीत असतो. पुढे लयकारीच्या अंदाजाने बढत सुरु होते आणि सुंदर हरकती, तिहाया, चक्करदार तोडे वाजवीत वादक समेवर येतो.

 

प्रतिभावंत तबलावादक अशावेळी आपले कौशल्य, बुद्धि पणाला लावून ठेक्याला मुख्य तंतकाराच्या लयकारीशी पूरकरीतीने नटवून, सजवून, लयकारीच्या हाकेला साजेसे उत्तर देत जवाबी हरकती पेश करत असतो. पुढेपुढे द्रुत लयीमध्ये होणारे सवाल-जवाबही रंजक आणि आव्हानात्मक असतात. अभ्यासू श्रोताही अशावेळी विस्मयचकित होत असतो. समसमा संयोग साधणारे दर्जेदार कलावंत स्वत:चे स्वतंत्र विश्व निर्माण करून त्यामध्ये श्रोत्याला जाणीव-नेणिवेच्या पलीकडे नेत असतात. ऐहिक सुखाचा पूर्णपणे विसर पाडून कर्णाद्वारे स्वरांचे घटच्या घट त्यांना अतीव समाधानाचा अनुभव देत असतात.

 

पुष्कळ तबलावादकांना नेहमी असा अनुभव येत असतो की गायकाने ख्याल सुरु करताच त्याने सुचवलेला ठेका समेवर सुरु केल्यानंतर पुढे आवर्तन पूर्ण होईपर्यंत मात्रा आणि ख्यालातले शब्द यांचे माप कमी-जास्त होत असते. नंतर समेवर येत असताना काहीतरी करून सम साधण्याचे तंत्र उपयोगात आणले जाते. यात डोकावून पाहिले असता दोन गोष्टी लक्षात येतील. एक म्हणजे गायकाला ठेका अवगत असला तरी लयीचे यथायोग्य माप तबलावादकाला सांगता आलेले नसते. दुसरी गोष्ट याउलट म्हणजे तबलियाने केवळ ताल कोणता तेवढेच ऐकलेले असते आणि चीजेची लय कशी आहे ते त्याला कळलेले नसते, किंबहुना गायकाने सांगितलेल्या लयीशी त्याचे संधान साधले गेलेले नसते.

 

याबद्दल हिंदुस्तानी ख्यालगायन पद्धतींमधील काही महत्वाच्या गायनशैली अवलोकिल्या तर लक्षात येईल की कोणतीही चीज असो, गायक ख्यालाची लय साधारणपणे अति विलंबितच ठेवतात. विशेष करून धीमा एकताल या मंडळींचा आवडता ताल आहे आणि लयीचा मापदंडही ठरलेला असतो. अशा वातावरणात वाढलेल्या तबलियाला ख्यालाची साथ करीत असताना कुणाहीबरोबर त्याच लयीत सुरुवात करणे अंगवळणी पडलेले असते. गायक जर त्या लयीत सर्रास न गाणारा असेल त्याला ते अति विलंबित वजन पेलवतेच असे नाही. त्या लयीत त्याला समरस होण्यासाठी ख्यालाचा बराच काळ ओढून काढावा लागत असतो. तबलियाला अशा लयीत फार फरक करणेही सवयीचे नसते. वेगवेगळ्या लयीत वेगवेगळ्या बंदिशी असतात हे कधी त्याने लक्षात घेतलेलेच नसते. त्याला इतकेच माहित असते की ख्यालाची स्थायी, तिचा पूर्ण विस्तार, आकार-इकार इत्यादी पद्धतीने लावलेला दीर्घोच्चारित तार षड्ज आणि त्यानंतर अंतरा; अशी पार्श्वभूमी तयार झाल्यानंतर केवळ समेवर येणारा शब्दोच्चार , मग शक्य तेवढा अंतऱ्याचा विस्तार करून अंतरा पूर्ण म्हणून झाल्यावर स्थायीचा पुनरुच्चार केल्याबरोबर प्रचलित विलंबित लयीची गाणाऱ्याला न विचारताच बरोबर दुगुन करणे. यांत्रिकपणे त्याचा हा व्यवहार त्याच्या अंगवळणी पडून गेलेला असतो. अशा तबलियाच्या मनातील ख्यालाचे तयार झालेले प्रतिबिंब अगदी कधीतरी बदलते. त्यामुळे अशा लयीची सवय नसलेला गायक प्रारंभी दर्शविल्याप्रमाणे मोहरून गाऊ शकत नाही.

वर विस्ताराने दाखवलेली ही वादनशैली काही ठराविक भागातच आहे असे नाही. अखिल हिंदुस्तानात सर्व तऱ्हेची गायकी एकच शहरात ऐकायला मिळेल अशी खूप कमी ठिकाणे आहेत. ज्यावेळी वेगवेगळ्या शैलींच्या गायक-वादकांबरोबर तबलावादक आपला ताळेबंद जमवेल त्यावेळी त्याची नजर चौफेर होऊन ज्याला जशी लय हवी तशी तो देऊ शकेल.

 

आज तबला शिकवणारे वर्ग प्रत्येक शहरात अमाप आहेत. केवळ कलेवर गुजराण करणाऱ्यांचे ‘बरे दिवस’ आले आहेत असे समाधानाने म्हणण्यास काही हरकत नाही. या गुरुमंडळीनी कायदे, रेले, परण, तोडे, चक्रदार गती आणि द्रुतलयीतल्या दमदार-बेदम बंदिशी शिकवतच विलंबित गायन, मध्यलयीतले ख्याल, जयपूर, आग्रा, ग्वाल्हेर आदि गायकीची खास वैशिष्ट्ये समजावून, त्यांना साजेसे ठेके विद्यार्थ्यांकडून संयमाने करवून घेतले पाहिजेत. भरपूर गायन-वादन ऐकवले पाहिजे. रोजच्या बैठकीतच ख्यालाची साथसंगत करण्याचे प्रत्यक्ष धडे दिले पाहिजेत. संगीत संमेलनामध्ये हजेरी लावून ऐकण्याची सक्ती केली पाहिजे. यातूनच मैफिलीचे कलाकार घडणार आहेत हे स्पष्ट आहे.   

 

नंदन हेर्लेकर

 

Sunday, October 13, 2024

मात्रिक छंद आणि वर्णिक छंद.

छंदहीनों न शब्दोस्ति न च्छंदश्श्ब्द वर्जितम् | 

नाट्यशास्त्र 

स्वर आणि काल हे ध्वनीचे दोन स्तंभ आहेत. स्वरतत्व संगीतात आणि काव्यात अंतर्भूत असते. तालतत्व ताल आणि छंदात स्पष्ट होऊन ते स्वयंभू प्रकट होतात. ताल आणि छंद याचा हा संबंध इतका जवळचा आहे. स्वरतत्व स्वरांच्या विभिन्न स्वरूपात (जसे स्वरालंकार) आणि कालतत्व लयतालाच्या विभिन्न स्वरूपात (विविध मात्रांचे ताल) सर्वांच्या अनुभवाला येत असते. नियमित अभ्यासकाला याचे प्रत्यंतर नेहमी येत असतेच. गद्य बोलण्यात स्वर आणि काल अनियमित असतात. संगीतात मात्र ते नियमबद्ध स्वरूपात प्रकट होत असतात. काव्यात छंदाचे महत्त्व दिसते आणि संगीतात तालाचे. म्हणूनच प्रत्येक संगीतरचना तालबद्ध असते आणि प्रत्येक कविता छंदोबद्ध असते. (मुक्तछंद हा प्रकार वेगळा, तो विषय येथे नाही!!) छंद काव्याचा आणि ताल संगीताचा मापक म्हणून प्रकट होतो. भरतमुनींनी व्यापक रुपात स्वरतत्व शब्दात आणि कालतत्व छंदात सांगून दोन्ही अभिन्न असल्याचे सांगितले आहे. तालाने संगीत अनुशासित बनत असते तर छंदाने काव्य अनुशासित बनत असते. छंदाचे दोन प्रकार भरतमुनींनी सांगितले आहेत. मात्रिक छंद आणि वर्णिक छंद. मात्रांवर आधारित छंद हे मात्रिक आणि वर्णांवर आधारित हे वर्णिक म्हटले जातात. म्हणजेच ह्रस्व - दीर्घ किंवा लघु - गुरु या आधारावर लयीला विशेष आकार स्वरूप प्राप्त होत असते. तेव्हाच त्याला छंद म्हटले जाते. लयबद्धता हीच त्याची विशेषता असते. 

अर्थसंपन्न काव्यामध्ये जशी लयबद्धता असते तशीच ती निरर्थक काव्यामध्येही (या ठिकाणी निरर्थक म्हणजे अर्थाची अपेक्षा नसलेले काव्य) असते, शब्दरहित रचनेमध्येसुद्धा असते. (जसा तराना). उत्तर भारतीय साहित्यात चौपाई, दोहा, हरिगीतिका, रोला, छप्पय, कुंडलिया हे मात्रिक छंद गणले जातात, तर मालिका, मंदक्रांता, तोडक, धनाक्षरी, सवैय्या हे वर्णिक छंद आहेत. छंदाला लयबद्धता असणे महत्त्वाचे. त्यात सार्थक रचना किंवा निरर्थक रचनाही असू शकते. स्वर आणि ताल हे संगीताचे दोन अनन्यसाधारण घटक आहेत. याचबरोबर गायनामध्ये तिसरा महत्त्वाचा घटक म्हणजे कविता असते. 

कविता वाचन हे स्वतंत्र रूपाने छंदाची अनुभूती देते पण तिचे गायन होते तेव्हा त्यातला मूळ छंद लुप्त होऊ शकतो आणि तिच्यातून नव्या तालछंदाची अनुभूती यायला लागते. मग ती रूपक, दादरा, तीनताल, अथवा कोणत्याही तालात गाता येते, आवश्यकतेनुसार ह्रस्व, दीर्घ, छोटे, मोठे उच्चार तयार होतात. उपयोगात आणलेल्या तालाचा नवा छंद निर्माण होतो. म्हणजेच ज्या तालात कविता गावी तो तचा छंद बनतो. 

धृपदगायनापूर्वी प्रबंध होते, ते छंदोबद्ध होते. तोटक, दंडक, झंपट, सिंहपद, गाथा, आर्या असे प्रबंध आपल्या नावामधल्या छंदात गायले जात. प्रबंधामध्ये याशिवाय इतरही अनेक छंद होते. कवि जयदेवाच्या गीतगोविंदमध्ये अनेक छंदांचा उपयोग झाला आहे. संगीत आणि काव्य या दोन्हींचा त्यात कल्पक समावेश आहे. परंतु प्रबंध गायनामधली अत्याधिक लांबलचक पदे, त्यांचं असाधारण महत्त्व, पदांची क्लिष्टता, काव्यगुणापेक्षा स्वरतत्वावरील अधिक परिवर्तन आदि कारणामुळे त्यांची जागा धृपद गायनाने घेतली. प्रबंधाच्या तुलनेत धृपद गायनातली संक्षिप्तता, सरलता, पद आणि तालांची विभिन्नता, गेयता यामुळे धृपद गायनाचा राजदरबारात प्रवेश सहज झाला. धनाक्षरी छंदाचा उपयोग धृपदात परिवर्तीत झाला, म्हणजेच चारतालात झाला. त्यात 31-31 अक्षरांचे 4 चरण धृपदात रचले गेले. त्याचेच स्थायी, अंतरा, संचारी आणि आभोग बनले. धनाक्षरीचे परिवर्तन चारतालमध्ये होण्यासाठी बरेच बदल करावे लागले. परंतु यातली सगळीच पदे परिवर्तीत झाली नाहीत. ती मूळ स्थितीत तशीच गायली गेली. 

धृपदानंतर शास्त्रीय संगीत क्षेत्रात प्रविष्ट झालेल्या ख्याल संगीतात गायली गेलेली पदे मूळ छन्दांशी बहुधा फारकत घेतानाच दिसतात. बडा ख्याल गाताना मुळातल्या कवितेच्या छंदाला छेद जातो, तो कधीकधी नष्ट होतो, शब्दांची खेचाखेच करून, कधी हृस्वाचे दीर्घ, तर दीर्घाचे ह्रस्व करून, कित्येकदा शब्द्श्चेद करून, ते अर्थविहीन करून ते कसेही गायले जातात. मूळ कवितेत छानसा छंद असला तरी एकतर तो नष्ट होतो, नाहीतर तो व्यवस्थित अनुभवला जात नाही. स्वर अलंकार छंदोबद्ध असतात, पण त्यांचा उपयोग केला जात नाही, त्याच्या स्वररचना तालबद्ध करून सादर केल्या जात नाहीत. त्यात सुंदर छंद असतात पण पूर्णपणे दुर्लक्षित असतात. 

वानगीदाखल काही उदाहरणे पाहू. 

मात्रिक गण 

१. सरेग s रेगम s गमप s मपध s पधनी s धनीसां s चिन्हे - IIS लघु लघु गुरू (स गण) 

२. सारेसा रेगरे गमग मपम पधप धनीध नीसांनी चिन्हे - III लघु लघु लघु (न गण) 

३. साSसासा रेSरेरे गSगग मSमम पSपप धSधध नीSनीनी सां Sसांसां चिन्हे - SII गुरू लघु लघु (भ गण) 

४. सारेSग रेगSम गमSप मपSध पधSनी धनीSसां चिन्हे - ISI लघु गुरू लघु (ज गण) 

५. रेSसारेS गSरेगS मSगमS पSमपS धSपधS नीSधनीS चिन्हे - SIS गुरू लघु गुरू(र गण) 

वर्णिक गण 

१. सारेसा रेगरे गमग मपम पधप धनीध नीसांनी - त्रिमात्रिक 

२. सारेगरे रेगमग गमपम मपधप पधनीध धनीसांनी - चातुर्मात्रिक 

३. सारेगरेसा रेगमगरे गमपमग मपधपम पधनीधप धनीसांनीध - पंचमात्रिक 

तसे षष्ठमात्रिक, सप्तमात्रिक वगैरे अलंकार बनले.

Tuesday, May 14, 2024

हिन्दुस्तानी ताल से रसनिर्मिति

रसनिर्मिति हिन्दुस्तानी संगीत का स्थायीभाव है| स्वरों जैसा ताल भी रसनिर्मिति करनेवाला एक महत्वपूर्ण घटक है| गंभीर, शांत, करुण-दुःख यह रस विलंबित लय से प्रकट होते हैं| अतिआनंद, उत्सुकता, मनविभोरता जैसे रस द्रुतलय से प्रकट होते हैं| रसनिर्मिति के लिए पोषक लय का प्रकटीकरण उत्तम तबलावादक कर सकता है| विवक्षित मात्रासंख्यावाले तालोंद्वारा विविध लयों के आधारपर प्रस्तुत होनेवाला स्वतन्त्र तबलावादन प्रभावशाली रसनिर्मिति कर सकता है, यह हम नित्य रूप से देखते हैं| विलंबितलय में प्रस्तुत होनेवाला पेशकार तबलावादक के मन में उमड़ती असंख्य कल्पनाओं को प्रकट करते हुए भी अपना शांत स्वरूप छोड़ता नहीं, यही इस बात की पुष्टि देता है| द्रुतलय के चक्करदार तोड़े, गत-परन, गत–मुखड़े, रेले हमें आनंद की चरम सीमा तक ले जाते हैं, यह भी सत्य है| दक्षिणात्य कृति अथवा पश्चिमी सिम्फनी का सादरीकरण एक तरफ, और अपनी बुद्धिनिष्ठा से हिन्दुस्तानी संगीत कलाकार ने की हुई मनघडाई देखने-सुनने के बाद इन सब में रसनिर्मिति के लिए हिन्दुस्तानी संगीत कितना परिणामकारी सिद्ध होता है, इस बात का पता चलता है| इसी पद्धति का एक आवश्यक और महत्वपूर्ण भाग यानि तबलावादन की कला भी स्वतन्त्र रूपसे रंजनक्षम है, यह भी सिद्ध है|....................................................................................................................................................... ‘श्रुतिर्माता लय:पिता' ............................................................................................................................................................................................................................................................................................................... इस उक्ति के अनुसार उत्कृष्ट गायक-वादक स्वर-लय के उत्कृष्ट मिलाफ से प्रतिसृष्टि का निर्माण करते हैं| इन्हीं माता-पिताओं के आश्रय में उनका स्वच्छंद विलास महफ़िल में प्रकट होता है| तालवाद्यवादक भी इन्हीं माता-पिताओं का आधार का लेते हुए साथ-संगत हो, या स्वतन्त्र वादन, सुन्दर छोटे-बड़े मुखड़ों-टुकड़ों से, या कायदे में से प्रमाणबद्ध हरकतों के प्रयोग से समपर आते समय उत्कंठा और परिपूर्ति की शृंखलाएं रसिकों के समक्ष प्रस्तुत करते हैं| लय को तालबद्ध करके उसमें से विभाग, ताली, खाली इन योजनाओं के द्वारा सुगमता निर्माण होती है| इस सुविधा के कारण ही गायक या स्वरवाद्य वादक अपनी कला लोकाभिमुख कर सकते हैं| इसी सुविधा के आधार से गायक या वादक ‘हम कहाँ हैं? का निश्चित स्थान’ समझ सकते हैं| उनके सही ‘अंदाज’ से ‘समपर’ आने की उनकी सौन्दर्य दृष्टि का प्रत्यंतर रसिकों को आता है| संगीतका प्राण लय में ही समाविष्ट होता है| अगर लय का अंदाज न हो तो स्वरों की उच्छ्रुन्खल सृष्टि में कलाकार भटकता रहेगा| विलंबित, मध्य एवं द्रुत लय के आधार पर ही स्वरों का कल्पनाविलास क्रमश: होते रहता है| ख्याल सजता रहता है| .................................................................................................................................................................... रुक्ष गणित, पर अचम्भित कलाविष्कार ............................................................................................................................................................................................................................................................................................................... एक दृष्टी से देखा जाएँ तो गणिततत्व पर आधारित तालव्याकरण, प्रस्तारविधि और हररोज अनेक घंटों की पसीना निकालनेवाली मेहनत की अपेक्षा करनेवाला यह संगीत का अत्यंत रुक्ष प्रकार है| परन्तु संख्याओं का यह व्याकरण प्रखर मेहनत से और दूरदृष्टी से करने के बाद जो अचंभित कर देनेवाली कला उत्पन्न होती है, उसे दुनिया की किसी भी कला से भी उच्च स्थान मिला है| हाथ की केवल दो-तीन उँगलियों का प्रयोग करके तबले के वर्णों का निकास होता है| अधिक जोर के लिए भी कभी पूरे हाथों का ढोल की तरह प्रयोग नहीँ होता| दायाँ-बायाँ हाथ कभी भी विवक्षित ऊंचाई के ऊपर जाता नहीं| होठों को चबा कर, चेहरेको विद्रुप बनाकर कभी तबले पर टूट पड़नेवाला दृश्य दिखता नहीं| वादक के वीरासन में या सीधी बैठक में भी कभी अंतर नहीं पड़ता| अनभिज्ञों को इस कठोर तपस्या की कभी कल्पना नहीं होती| उससे उत्पन्न आनंद का वह एक सहचारी मात्र होता है|

Saturday, May 4, 2024

SOMETHING ABOUT WESTERN MUSIC

Western Music The organised movement of sounds through a continuum of time. The major and minor scales that have dominated western music since 1650 are, strictly speaking, two modes of the basic diatonic scale; the Ionian mode, exemplified by CDEFGAB, which became the major scale; and the Aeolian mode, exemplified by ABCDEFG, which became the minor scale. The modes sound different because the half steps occur at different places in each. By the late 19th century, because of the ever-increasing use of sharpened and flattened notes, western music was based not on diatonic scales, but on a chromatic scale i.e. 12 notes within an octave. Pantatonic (five notes), Heptatonic (six notes) Indonasian music was a pentatonic scale called ‘Slendro’ in which the five notes are spaced almost eqally within the octave. Intervals can be measured in units called cents, 1200 per octave. The typical intervals of western music are multiples of 100 cents (semitones). The human ear can distinguish intervals as small as 14 cents, but no music can be made from such a small interval.

Sunday, January 14, 2024

KUMAR GANDHARV

 कुमारांचं पुण्यस्मरण

कुमारांची स्वरसूक्ष्मता
आपल्या संगीतातल्या आनंदरसाची प्रेरणा आपल्या प्राचीन महानुभावांकडून घेतलेल्या कुमार गंधर्वांच्या स्वर सूक्ष्मतेकडे साऱ्या संगीतविश्वाचं ध्यान आकृष्ट झालं. ज्या रागाना आपण साधे सोपे राग मानतो, त्या रागांकडे पाहण्याची त्यांची दृष्टी वेगळी होती. त्यांच्या कलासक्त मनात वेरुळचं लेणं पाहूनही स्वरावृत्ती सुचल्या. ‘सिर पे धरे गंगा’ ही शंकरामधली बंदिश त्यांना त्या लेण्यांतूनच सुचली. ते म्हणत, ‘तुम्ही राग केवळ समोरून पाहता. कधी तो उजव्या, डाव्या बाजूनं किंवा पाठीमागून अथवा वरून पाहिलाच नाही.’ त्यांची प्रत्येक कलाकृती अतिशय मोठी होती. रागाकडे पाहण्याची त्यांची दृष्टी भावपक्षाकडे अधिक झुकणारी होती आणि म्हणूनच त्याचं गाणं ऐकून भल्याभल्यांची बेचैनी वाढली. जाणकारांना त्यांनी भंडावून सोडलं. पारंपारिक रागाची घसीपीटी बैठक त्यांना कधीच रुचली नाही. ‘काल गायलो ते तेव्हाचं संपलं, आज सगळं पुन्हा शून्यातून सुरु करतोय’ असं ते म्हणायचे. वर्षानुवर्षे जे लोक अभ्यास करतात त्यांना गाता येत नाही आणि जे गातात त्यांना अभ्यास करता येत नाही अशी चाकोरी बाहेरची वाक्यं ते प्रश्नकर्त्याना ऐकवीत. हा तिढा कुमारजीनीच सोडवला. पण त्याचं हे गाणं पचवण्याची ताकद कुणाकडही नव्हती. त्यांच्या म्हणण्याप्रमाणे ते शास्त्राच्या मूळ रुपाला मुळीच धक्का लावत नसत. त्यांनी फक्त रुढीचा चोला खरवडून काढला. इतर गायक ते करूही शकले असते, पण रूढीविरुद्ध प्रश्न उभे करणं विनाकारणच अनैतिक मानलं जातं. त्यांना आणि त्यांच्या गायनाला झालेल्या विरोधातून तथाकथित सनातन्यांनी आपल्या आकळतेच्या सीमा सार्वजनिकरित्या दाखवून दिल्या किंवा त्यांनी डोळ्यावर घट्ट पट्ट्या बांधून घेतल्या. परंतु नवरसाच्या पलिकडला आनंदरस कुमारांनी अनुभवला आणि ज्यांना तो भावला ते त्यांच्या स्वरसूक्ष्मतेत विरघळून गेले. परंपरेची चौकट कुमारांनी मोडू नये म्हणून त्यांचे प्रत्यक्ष गुरु देवधरही आग्रही असत. परंतु कुमारांचे विचार त्यांच्यापेक्षाही जास्त आग्रही होते.
ते देवधरांकडे गेले तेव्हा त्या काळात घराण्यांच्या भिंती पोलादी होत्या. देवधरांकडे देशातले सगळे थोर गायक येत. तिथं सगळ्याचं गाणं त्यांना मनमुराद ऐकायला मिळालं. शांतपणे ऐकणं, साठवत जाणं, ऐकलेल्या गाण्याबद्दल विचार मंथन करणं हा त्यांचा सहज स्वभाव असायचा. नंतर प्रौढत्वातली त्यांची प्रगल्भ संगीतविचारधारा पाहता त्या विचार मंथनातून उपजलेलं नवनीत किती पुष्ट आणि सकस होतं, हे समजण श्रवणभक्ती जोपासलेल्या रसिकाच्या क्षमतेचंच मानक ठरलं. संगीत हे परिवर्तनशील आहे. त्याला केवळ साठवून त्याचा प्रवाह थांबवू नये असे ते म्हणत. आजचं झालं, पुढं काय? असा सातत्याचा सांगीतिक विचार ते प्रत्येकवेळी श्रोत्यांसमोर आपल्या गायनातून श्रोत्यांसमोर ठेवत. त्यांची पूर्ण मैफल ऐकून झाल्यावरही सच्चा रसिकाला कुतूहलयुक्त बेचैनी सातत्यानं जाणवत राहायची. जे ऐकलं त्यात पूर्तता झालीच नाही असं सर्वाना वाटत राही. या संदर्भात त्यांच्या या ओळी खूपच अंतर्मुख करतात.
मैं था जिसके पीछे पीछे
अब मै उसके आगे आगे
देखा जब मै आगे पीछे
दिखा सबकुछ आगे आगे


(Google Image)



प्रबंध गायनापासून ख्याल गायनापर्यंत अनेक टप्पे संगीत कलेने आजवर ओलांडलेले असतांना घरांदाजीचा डामडौल कशाला? असे बचैन करणारे प्रश्न त्यांनी सतत प्रवाही असलेल्या गाण्यातून वेळोवेळी प्रकट केले.
पारंपारिक ख्याल त्यांना उपजतच अवगत होता आणि म्हणूनच ते वयाच्या अवघ्या नवव्या वर्षी भूगंधर्व रहिमत खानसाहेबांची सव्वातीन मिनिटाची ध्वनिमुद्रिका तशीच गाऊन, पुढं त्या हृदयी जाऊन अर्धा तास गाऊन दाखवत असत. अतिविलंबित लयीचा ख्यालही त्यांनी मध्यलयीत आणला हा केवळ त्यांच्या शारीरिक अडचणीमुळे नव्हे. कुमारांचा स्वर लावण्य म्हणजे एक प्रयोशाळा होती. ‘जमुना के तीर’ ची करुणावली त्यांनी आनंदरसात परिवर्तित केली आणि त्या मूळ पाच मिनिटाचा परमोत्कट बिंदू अर्ध्या तासापर्यंत सर्वांना स्पर्शू दिला. त्याचं बालपण म्हणजे एक मोठं आश्चर्य होतं. त्या वयातलं त्याचं ऐकणं, तरल मनाच्या कप्प्यात साठवून ठेवणं, साठवून ठेवलेल्या त्या स्वरखजिन्याला आपल्या विचार शक्तीनं संस्कारित करणं आणि ते श्रोत्यांसमोर व्यक्त करताना संपूर्ण नवं रूप बाहेर आणणं हे त्याचं आगळेपण होतं. शब्दाचं संगीत जिथं थांबतं तिथं तराना सुरु होतो असं ते म्हणत. म्हणूनच तराना हा ठुमरीच्या भावविश्वाचा पुढचा पदर आहे असं त्यांचं प्रात्यक्षिकातून दाखवून दिलेलं मत होतं.
कुमार या पुस्तकाचे लेखक वसंत पोतदार यांच्या वाक्यात सांगायचं झालं तर इतर गायक तेच ते राग, रागच नव्हे, त्यांच्या त्याच त्या बंदिशी वर्षानुवर्षं एकसारख्याच पेश करत आले आहेत आणि कुमारजी नित्यनूतन, टवटवीत अशी स्वरसुगंधित फुलांची परडी श्रोत्यांना देत आले आहेत.
तसं पाहता त्यांचं आयुष्य इतर मंचासीन कलाकारांपेक्षा खूपच कमी होतं. आजारपणातली त्यांची पाचसहा वर्षं लो कधुनिंच्या श्रवणात आणि चिंतनात गेली. पुढं गायची परवानगी मिळाल्यानंतर त्यांनी गायलेल्या वर्षांचा कालखंड हा गुणात्मक दृष्ट्या सर्व प्रस्थापितांपेक्षा वरचढ ठरला.
उ. अल्लादिया खांसाहेबांना सूर्याची उपमा दिली जायची, पण तो एक काळ असा होता की एकाचवेळी असे अनेक संगीतसूर्य भारताच्या संगीताकाशात स्वच्छंद विहार करत होते. त्यांचे स्वरामृत प्राशून कुमारांसारख्या दिव्यस्पर्शी स्वरादूताना ती प्रखरता तळपत ठेवली. ते म्हणत, ‘राग अरूप असतो, त्याला बंदिशीचं कुंची अंगड पहरवावं लागतं. त्यांच्या डोळ्यासमोर राग, त्याचे स्वर आणि त्याची बंदिश साक्षात उभीच राहायची. स्वराइतकंच त्यांनी निसर्गावर प्रेम केलं. शिल्पकलेवर केलं, रंगावर केलं. इतकंच नव्हे तर जो समोर आला त्या कवीच्या शब्दांवरही केलं.
तुलसीदासांच्या रचना गाण्यासाठी त्यांनी अख्खा तुलसीदास वाचून काढला. तीच गोष्ट कबीराची, मीरेचीही. कवीचं अंतरंग समजून घेण्यासाठी त्यांनी प्रचंड कष्ट घेतले. कन्नड मातृभाषा असलेल्या या अवलियानं भा. रा. तांबे या कवीवरही विलक्षण प्रेम केलं. तुकारामांचं दर्शनही घडवलं. शाळेचं नाममात्र शिक्षण घेतलेल्या कुमारांनी साहित्यिक ज्ञान मोठ्या हौसेनं मिळवलं. पुस्तकी ज्ञानाच्या पलीकडं विचार करण्याची त्यांची नैसर्गिक सुंदरता होती.
बालगंधर्व उमजून घेण्यासाठी त्यांच्या ध्वनिमुद्रिका घासून घासून पार खराब होईपर्यंत ऐकल्या. त्यांच्या तनाइति समजून घेण्यासाठी ध्वनिमुद्रिकांची गति कमी करून सूक्ष्मतेनं ऐकल्या. श्रेष्ठांच श्रेष्ठत्व नेमकं काय असतं याचा शोध घेण्याची त्यांची धडपड आज प्रत्येकानं समजून घेण्याची फार आवश्यकता आहे.
वेगवेगळ्या घराण्यात भूप कसा वेगळा भासतो हे सांगण्यासाठी त्यांनी भूप दर्शन हा कार्यक्रम सदर केला. तीच गोष्ट गौडमल्हार यासारख्या अनेक रागांसाठी त्यांनी केली. गीत हेमंत, गीत वर्षा, गीत बसंत असे त्यांचे प्रयोग जाणीवपूर्वक तयार केले गेले. स्वरसंहिता ऋतुकालाप्रमाणे कशी सहजतेनं बदलते याचं दर्शन ते या कार्यक्रमातून देत. अभ्यासू श्रोत्यानं काय, किती आणि कसं ऐकावं याचा वस्तुपाठ अशा कार्यक्रम करण्यामागं त्यांचा असे. एका रंगात दुसरा रंग सहजपणे मिसळून नवसुखदायक स्वरूप प्रकट करतो तसं सगळ्या ललितकला एकमेकांच्या हाती हात देऊन विहार करतात हे त्यांच्या या प्रयोगांतून सिद्ध व्हायचं.
‘मालवा की लोकधुने’ हा तरी त्यांच्या गंभीर अस्वास्थ्यामधला नित्य अवलोकानामधून उद्भवलेला चिंतनाचा विषय. तो कार्यक्रम १९७० मधला. त्या मनस्वी काळात कुमारांच्या मनातली धून उगम रागांची, कित्येक वर्षांपासूनच्या विचारांची उजळणी सुरु झाली. देवधरांनी त्यांना धून उगम रागांबद्दल अगोदर सविस्तर सांगितलं होतंच!
त्रिवेणी हा त्यांचा कार्यक्रम १९६७ मध्ये मंचावर आला. त्यात कबीर, मीरा आणि सूरदास यांच्या पदांचे त्यांनी केलेलं गायन आणि संगीत संयोजन होतं. काही श्रोत्यांच्या मते तो एक प्रयोग होता. पण कुमारजी म्हणत, हा प्रयोग नव्हे, उत्खनन आहे.! सांगीतिक उत्खनन. विस्मृतीच्या पाताळात गडप झालेली स्वरमूल्य मी पुनरपि जन्माला घातलीत, घालत राहणार आहे.
त्यांच्या आजारपणानंतरचं गाणं प्रथम इंदूर, उज्जैन आणि नंतर १९५३ मध्ये पुण्याला झालं. नवचेतनेची ज्वाला अंतरात घेऊन पूर्णपणे नव्या पेहरावातल त्याचं ते गायन ऐकून पुराणमतवादी शास्त्रच्छलाचा आरोप करू लागले. चतुरस्र संगीतकारही चक्रावून गेले. गोविंदराव टेंबे तरी म्हणाले, कुमार गांधर्व हे भारतीय शास्त्रीय संगीतासमक्ष उभे ठाकलेलं एक प्रश्नचिन्ह आहे. पण त्याच गोविंदरावाना वर्षभरात आपलं ते वाक्य बदलून कुमारांना ‘भारतीय संगीतातलं एक आश्चर्य’ असं करावं लागलं!
कुमार म्हणत, एकचवेळी दोन आघाड्यावर मला रस्सीखेच करावी लागते आहे. एका आघाडीवर क्षयरोग, तर दुसरीकडे मीच पूर्वी गात असलेली पारंपारिक गायकी. ती व्याकरणात जखडली होती, तिच्याबरोबर मीही. त्यातून मुक्त झालोय, तीच ही नवी गायकी!
ठुमरी, टप्पा, तराना यावरचं त्याचं विचारदर्शन १९६९ मध्ये त्यांच्या उपजत जिज्ञासू स्वभावातून श्रोत्यांसमोर प्रकटलं. ठुमरीच्या उगमाबद्दल आणि त्यातल्या मनोभावी प्रकारांबद्दल त्यांनी केव्हा अभ्यास केला असेल हे कळणंही दुरापास्त आहे. दत्तात्रयांनी एकवीस गुरु केले असं म्हणतात, पण या अवलियानं पशुपक्षी, खळखळता निर्झर, गहन सागर, निळा अंबर, झुळझुळता वारा, कोसळत्या धारा, हिरवी वनराई, गर्द मेघांचा कडकडाट, तुफानी वादळ या सर्वांनाच स्वरारोपणासाठी आदर्श मानलं.
तसे त्यांचे गुरु होते तरी कोण?
त्यांचे वडील सिद्धरामय्या हे अब्दुल करीम खांसाहेबांच्या गायनावर निरतिशय प्रेम करणारं व्यक्तिमत्व होतं. गदगच्या गानयोगी पंचाक्षरी गवयांचे ते शिष्यही होते. वडील बंधु शिवरुद्रय्या हेही गात. त्या उभयतांच गाणं त्यांनी बालवयात ऐकलं. मामा दर्जेदार चित्रकार आणि मूर्तिकार होते. म्हणजेच कलेचा तरल स्पर्श त्यांच्या बालवयातच त्यांना झाला. सिद्धरामय्या आणि शिवरुद्रय्या जेव्हा गायला बसत तेव्हा पाच सहा वर्षांच्या कुमारांनी ‘सा’ लावला आणि उभयतांची गायनकलाच झाकोळली गेली. ईश्वरी दयेचा खूप मोठा वरदहस्त या बालकाच्या रुपात आपल्याला गवसला आहे हे त्या दोघानाही जाणवलं. लोकांनातरी हा एक मोठा चमत्कार असल्याची जाणीव झाली. छोट्या कुमारांना घेऊन उभयता आपल्या घराण्याच्या अध्यात्मिक गुरूंच्या दर्शनाला बागेवाडी येथे शांतवीर स्वामी यांच्याकडे गेले. या बालकाचं ते अलौकिक आणि सर्व रसानी युक्त असं बेधडक गायन ऐकताच त्यांनी या बालकाचा भारावून जाऊन सत्कार केला आणि ‘कुमार गंधर्व’ अशी अक्षरं कोरलेलं सुवर्णपदक बक्षीस दिलं. तो आशीर्वाद प्राप्त झाल्यावर त्यांच्या वडिलांनी ‘कुमार गांधर्व आणि पार्टी’ या नावानं गायनाच्या कार्यक्रमाचा धडाका सुरु केला. जिथं जिथं ही पार्टी पोहोचली तिथं तिथं श्रोत्यांना दैवी, विलक्षण, चमत्कार, अपूर्व, पूर्वसंचीत धन अशा विशेषणाची पराकाष्ठा पहायला मिळाली. संपूर्ण देशात अगदी लाहोर पेशावर पर्यंत त्यांचे अथक दौरे सुरु झाले. कार्यक्रमाच्या आरंभी शिवरुद्रय्या थोडावेळ गात आणि मग कुमारांची स्वरगंगा उसळू लागे. श्रोते स्थलकाल विसरून गुंग होऊन जात. वयाच्या अवघ्या नवव्या वर्षी त्यांची दुर्गा रागातली ‘सखी मोरी रुमझुम’ ही बंदिश आणि ‘श्याम सुंदर मदन मोहन’ ही भैरवीत गायलेली तबकडी प्रसिद्ध झाली. ती ऐकून देशभरातल्या गायनप्रेमींच कुतुहूल चाळवलं. अलाहाबाद, कलकत्ता आणि मुंबईच्या संगीत विश्वात कुमारांनी खळबळ उडवून दिली. त्या काळात बेळगावात असलेले महबूब खां आणि कुमारांचे समवयीन रामकृष्ण बोंद्रे तबल्याच्या साथीला असत. १९३१ ते १९३५ पर्यंत संपूर्ण देशातल्या महत्वपूर्ण संगीत समारोहात या चौकडीनं सहभाग घेतला. प्रयाग संगीत समितीच्या अखिल भारतीय संगीत परिषदेत शंकर राव बोडस, फैय्याज खान, कुंदनलाल सैगल अशांच्या उपस्थितीत कुमारांनी ‘उगिच का कांता’ हे पद गायला सुरुवात केली. करीम खांसाहेबांची ही तबकडी नुकतीच बाजारात आली होती आणि तिला अमाप लोकप्रियता लाभलेली होती. खांसाहेबांच्या भावगर्भ परिसीमा ओलांडुन विलक्षण आत्मविश्वासानं कुमारांचं झालेलं गाणं ऐकून सारेच फिदा झाले. खुद्द फैय्याजखां उठून मंचावर आले आणि म्हणाले की ‘बेटा, अगर मैं जमीनदार होता तो मेरी सारी जायदाद तुम्हारे नाम कर देता’. कन्नड सोडून कोणतीही भाषा अवगत नसलेल्या कुमारांना त्यातलं काही कळल नाही, पण इतक्या मोठ्या गवय्यानं आपल्या मुलाचं केलेलं कौतुक पाहून सिद्धरामय्या गहिवरले..
पुढं कलाकत्त्यामध्ये विद्यापीठाच्या आवारात झालेल्या समारोहात बंगालातले महान संगीतकार, गायक, वादक, संगीतशास्त्री उपस्थित होते. सभाधीटपणे मंचासीन झालेल्या कुमारांनी करीम खांसाहेबांच्याच प्रसिद्ध तबकडीतला झिंजोटी गायला सुरुवात केली आणि श्रोते अवाक झाले. कुमारांवर बक्षिसांची खैरात झाली. त्याच श्रोत्यामध्ये एक महान गुरुही बसलेले होते. मुंबईचे प्रो. बी. आर. देवधर. १९३५ मध्ये मुंबईच्या जीना हाल मध्ये होणार असलेल्या या परिषदेचे ते सूत्रधार म्हणून ठरले होते. त्यांनी प्रभावित होऊन कुमारांना तिथं येण्याचं रीतसर आमंत्रण दिलं. तिथंही अनेक खांसाहेब, पंडित, मीमांसक, रसिक आणि उत्सुक दर्दी श्रोत्यांनी कुमारांचं अभूतपूर्व गायन ऐकलं. परत तिथच आणखी एका परिषदेमध्ये तीनच महिन्यांनी त्याचं गायन झालं.
सिद्धरामय्यांनी आता ठरवलं की बस्स झालं. देवधरांनी पूर्वी विषय काढला होताच. त्याप्रमाणे त्यांच्याकडं कुमारांना सुपूर्द करायचं नक्की ठरलं. या ठिकाणी एक गोष्ट समजून घेतली पाहिजे की सोन्याची अंडी देणारा आपला पुत्र गुरूगृही ठेवायचा म्हणजे खूप मोठ्या मायेचा करायला हवा! हा विचार सिद्धरामय्यांनी किती विचारपूर्वक केला असला पाहिजे. त्याप्रमाणे झालंही! देवधरांनी कुमारांचे सगळे दौरे बंद केले. आपल्या घरच्या सदस्याप्रमाणे त्यांच्यावर जीव लावला. त्यांचा अल्लडपणा, हूडपणा, हट्टीपणा सगळं काही सहन केलं. आपल्या पत्नीकरवी त्यांना लिहायला, वाचायला शिकवलं. चीजांच नोटेशन कसं करावं याची वेगळी शिकवणी घेतली. आजवर कुमार तीनताल, झपताल, दादरा, कहारवा अशा तालातच गायचे, आता त्यांचा विलंबित तालातील ख्यालांचा प्रशिक्षणाचा अभ्यास सुरु झाला. अनुकरणाचं त्याचं गाणं आता नोटेशनच्या शिक्षणामुळे अधिक समजूतदार बनू लागलं.
हर्षे आणि आठवले हे दोन शिक्षकही त्यांना शिकवू लागले. कुमारांसाहित चंद्रशेखर रेळे, शीला पंडित आणि कांचनमाला शिरोडकर अशा चारजणांचा विद्यार्थीवर्ग त्यांच्याकडे शिकू लागला. देवधरांच्या तालमीत अत्यंत कुशाग्र बुद्धीच्या कुमारांना त्यात विशेष कष्टही घ्यावे लागले नाहीत. १९३८ मध्ये महान तबलावादक अहमदजान थिरकवा यांनी अलाहाबादमध्ये कुमारांची साथ केली त्या प्रगल्भ गायकीच्या अवेगावर फिदा होऊनच! देवधरांकडून त्यांना अनेक अनवट राग, अनवट बंदिशी यांचा भारंभार खजिना मिळाला. देवधर एकदा गायलेला राग अथवा बंदिश आकाशवाणीवर पुनश्च कधीही गात नसत. कुमारांना उत्तर भारतातली आकाशवाणीची चेन बुकिंग्ज ते मिळवून द्यायचे. याचं कारण कुमारांना राजाभैया पुंछवाले आणि अण्णा रातंजनकरना भेटता यावं. त्यांच्याकडं बसून शिकायला मिळावं. कुमारजी रातंजनकरांकडे खूप शिकले. जसे रातंजनकर, तसे जगन्नाथबुवा पुरोहित. नव्या चीजा बांधल्या की कुमारांना लगेच बुवांचा निरोप यायचा. कितीतरी बंदिशी कुमारांना बुवांनी शिकवल्या.
पुढं आठवले यांचे भाचे बंडू ऊर्फ व्ही. जी. जोग, हर्डीकर, बेळगावचेच बसवाणेप्पा भेन्डीगेरी, रामकृष्ण बोंद्रे, शांताराम कशाळकर, तुलसीदास शर्मा असे अनेक सहाध्यायी त्यांना तिथंच मिळाले. १९४६ मध्ये पंढरीनाथ कोल्हापुरे हे कुमारांचे शिष्य बनले. देवधरांनी कुमारांना शिक्षकाचंही काम दिलं होतं.
देवासचे कृष्णराव मुजुमदार देवधारांकडे नित्य येत. कुमार त्यांच्यापाशीही शिकले. निकोपपणे धक्केबाजी न करता सम कशी साधावी याचं गुपित ते सिंदेखां यांच्याकडे शिकले. लगनपिया या नावाने प्रसिद्ध वाजीद हुसेन यांच्याकडून ते टप्प्याची गायकी शिकले. राजाभैय्या पुंछवाले यांच्याकडून त्यांनी टप्प्याची ग्वाल्हेरी गायकी आत्मसात केली. अंजनीबाई मालपेकर यांच्याकडून कुमारजी स्वरांचं स्वयंभूत्व आणि ख्यालभरणा शिकले.
वसंत पोतदारांशी बोलताना कुमारांनी आपल्या शेवटच्या गुरुचंही नाव सांगितलं आणि तो गुरु म्हणजे टी. बी.!! त्या गुरुनं तरी कुमारांना गाण्याबाहेरच घालवलं. म्हणजेच फार शिकवलं!
स्वतः अंतर्मुख होऊन आपल्याला भावलेल्या विचारसरणीतून उत्पन्न झालेल्या अनेक नव्या रागांची निर्मिती त्यांनी केली. मालवती, अहिमोहिनी, गौरीबसंत, लंकेश्री, लगनगांधार, संजारी, मधसुरजा, निन्दियारी, सहेली तोडी, भवमत भैरव, चैती भूप, दुर्गा केदार, नंद केदार, सोहनी भटियार आणि गांधी मल्हार असे अनेक राग ऐकताना आजही श्रोता अचंबित होतो. असीम शास्त्रीय संगीताच्या नवनवीन द्वारांची त्यांनी केलेली शोधप्रक्रियासुद्धा अचंबित करणारी आहे. कुमारांची ग्रंथरचनाही उल्लेखनीय आहे. अनुप राग विलास हा त्यांच्या बंदिशींचा संग्रह एक अनमोल खजिना आहे.
अरविंद मंगरूळकरांनी संस्कृतमध्ये कुमारांवर लिहिलेलं काव्य इथ देण्याचा मोह आवरत नाही. त्यांच्याबद्दल त्यांनी लिहिलेल्या ओळी खरोखरीच असामान्य वर्णनानं युक्त आहेत.
कौमारं गान्धर्वम्
स्निग्धा, श्यामा, फुल्ला विपिने लीला गगने महोत्सवाभा
संविदि भान्ती तमसि लसंती ददाति मोद दधति मोहम्
अविरतमात्मनिलीना स्तब्धा काऽहं काऽहं इति पृच्छन्ति
साऽहं साऽहं समीरयन्ती परमे व्योमन विरलं द्रष्टा
चरमे विश्वे विरलं स्पृष्टा तदापि प्रतीतिविश्वे मग्ना
निमिषे निमिषे नवतारूढा दृष्ट दृष्ट क्वापि व्यक्ता
आकलनीया नो कलनीया
सा किं राधा, स्निग्धा मधुरा? नहि, नहि
मालवरात्रि;, श्यामा शीता? नहि, नहि
अपि वनलक्ष्मी: फ़ुल्लाविपिने? नहि, नहि
तत् किं ज्योत्स्ना, लीला गगने? नहि, नहि
आर्य सा विद्युत् तमसि लसन्ति? नहि, नहि
सा किमुपनिषद, अमृतं यान्ती? नहि, नहि
तत् किं प्रतिभा नवतारूढा? नहि, नहि
अपि सा यक्षी व्यक्ताव्यक्ता? नहि, नहि
बन्धो, सत्यं ह्येतत्सर्वं तदपि दशाङ्गुलमस्यात् पारे
सा खलु गानकला कौमारी कौमारं गान्धर्वंम्
ही कविता त्यांनी नोव्हेंबर १९८५ मध्ये प्रसिद्ध झालेल्या ‘आमचे कुमारजी’ या संग्रहात प्रकाशित केली आहे. (आमचे सन्मित्र नंदन वांद्रे यांच्याकडून उपलब्ध झाली). या लेखातील अनेक उद्धरणे विचारवंत डॉ. मुकुंद संगोराम यांच्या व्याख्यानातून आणि वसंत पोतदार यांनी लिहिलेल्या ‘कुमार’ या पुस्तकातून घेतली आहेत.

नंदन हेर्लेकर