Pages In This Blog

Saturday, October 17, 2020

TIME CYCLE IN HINDUSTANI MUSIC

 

राग समय के बारे में कुछ विचार

हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में रागों के “योग्य” समय पर गाने-बजाने के बारे में विशेष महत्व दिया गया है। इसके लिए दिन के चार तथा रात्रि के चार प्रहर, यानि आठ प्रहर के राग नियमबद्ध समयसारिणी के अनुसार समझाएँ गए हैं। इसके अलावा सन्धिप्रकाश रागों का भी विशेष वर्णन शास्त्रों में किया गया है। संगीत के अभ्यासक इस नियमावली का कठोरता से पालन करते हैं, यह बहुतांश रूप से देखा जाता है। यह समयचक्र क्या है, तथा इसका वर्णन किस तरह किया गया है इसे देखना बहुत महत्वपूर्ण है।

इसी के साथ पूर्व राग और उत्तर राग क्या होते हैं, इसे भी देखना जरूरी है।

आजकल यू ट्यूब, व्हाट्सैप्प, फेसबुक जैसे लोकप्रिय समाज माध्यमों पर संगीत सुननेवालों के ग्रुप्स बन गएँ हैं, तथा दिनभर अनगिनत रागों के रेकार्डिंग्स एक-दूसरे को भेजे जाते हैं। ऐसी हालत में कोई समयानुसार रागों का श्रवण करता हो यह असंभव है। ऐसी अपेक्षा करना भी गलत है। दुर्भाग्यवश आजकल के हालात श्रोताओं के समक्ष संगीत कार्यक्रमों के न होने के हैं।

रागसमय के बंधन को ध्यान में रखते हुए अक्सर कई खास सभाओं का आयोजन किया जाता है, जहाँ केवल सुबह के सत्र होते हैं। बड़े नगरों में “दीपावली की प्रभात” होती है, जहाँ केवल भोर के समय के राग सुनने को मिलते हैं। ऐसे भी आयोजन होते हैं, जहाँ प्रभातसमय के संधिप्रकाश राग, सूरज के उगने के बाद गाए जानेवाले, तथा मध्यान्ह के समय के राग सुनने को मिलते हैं। शाम के सत्र में पूर्व सन्ध्या के समय के, शाम के संधिप्रकाश राग, सूर्यास्त के बाद वाले, रात के समयवाले तथा हो सके तो उत्तर रात्री के राग भी ऐसी सभाओं में श्रोताओं को सुनने को मिलते हैं। परन्तु आजकल समय की पाबन्दी के चलते रागसमय चक्र को सभाओं में अनुभव करना केवल नामुमकिन हो चुका है।

एक जमाना था, जब शाम को आरम्भ हुई संगीतसभा सुबह तक चलती थी। रसिक श्रोतागण बड़े पैमाने पर इसमें शरीक हुआ करते थे। रातभर सुने हुए गायन-वादन की मधुर स्मृतियाँ दूसरे दिन के अपने कार्यकलापों के साथ अपनी स्मृति में जगाकर रात को फिर दूसरी सभा में उपस्थित हुआ करते थे। फिर पूरी रात नए सुरों का मजा लेते लेते सुबह के सत्र में थकावट का नाम भी न लेते हुए बैठे रहते थे। आजकल केवल गिनेचुने संस्थानों में रात-दिन चलनेवाली संगीतसभाएँ आयोजित होती हैं, जैसे माणिक नगर का दरबार, मिरज या कुंदगोल का उत्सव।

ऐसी सभाओं में घरन्दाज गायक-वादकों के बड़ी संख्या में समाविष्ट  होने के कारण जानकार तथा गुणीजनों की उपस्थिती भी अधिक मात्रा में होती है। अप्रचलित तथा हर मेल के, आठों प्रहरों के राग सुनाने का अवसर कलाकारों को भी मिल जाता है। कई बार फर्माइशें भी पूरी हो जाने के कारण संगीत रसिक पूरी तरह तृप्त हो जाते हैं। रसिक श्रोताओं के लिए ऐसी सभाएं तीर्थस्थल बन जाती है।

इस पूरी बात का मूल है समयाधारित रागगायन। प्रातःकालीन रागों से आरम्भ करके आठों प्रहर के कुछ महत्वपूर्ण तथा लोकप्रिय रागों के नाम तथा उनका छोटा विवरण देने की यहाँ कोशिश करेंगे।

शास्त्रीय संगीत सुननेवालों के लिए तथा भारतीय संगीतशास्त्र को समझने की इच्छा रखानेवालों के लिए कुछ महत्वपूर्ण बातें बताने का प्रयास यहाँ किया गया है।

हिंदुस्तानी रागों के मुख्यत: तीन वर्ग हैं।

१ कोमल रे तथा कोमल ध वाले राग

२ शुद्ध रे तथा शुद्धा ध वाले राग

३ कोमल ग तथा कोमल नी वाले राग

पहले वर्ग के रागों को सन्धिप्रकाश के समय गाया/बजाया जाता है।  

 

 प्रभात के संधिप्रकाश राग

                 

 

क्र.

 

   

नाम

भैरव

रामकली

कालिंगड़ा  

ठाट

भैरव

भैरव

भैरव  

आवश्यक जानकारी - शुद्ध म का प्रयोग

सम्पूर्ण राग, को. रे ध, जनक, आश्रय राग   

भैरव अंग, तीव्र म तथा कोमल नी का प्रयोग

रे और ध पर आंदोलन नहीं होता  

 

 

सायंकालीन संधिप्रकाश राग

 

क्र

 

 

 

नाम

पूर्वी

पूरिया धनाश्री  

श्री

ठाट

पूर्वी  

पूर्वी

 

पूर्वी

आवश्यक जानकारी – तीव्र म का प्रयोग

दोनों म का प्रयोग, जनक, आश्रय राग   

नि रे ग से आरोह प्रारम्भ

 

सा रे म प नि आरोह   

 

 

हर नियम के अपवाद होते हैं। राग का सौंदर्यशास्त्र अलग है, तथा ठाट के नियम अलग हैं। प्रभातकालीन संधिप्रकाश रागों में तोड़ी को भी समाविष्ट किया जाता है, परंतु उसमें तीव्र म का प्रयोग होता है। उसी तरह राग भटियार भी प्रात:कालीन माना जाता है, जो मारवा ठाट का होने के कारण शुद्ध ध को महत्व देता है।

सायंकालीन संधिप्रकाश रागों में  मारवा भी समाविष्ट है, परंतु उसमें शुद्ध ध की बहुलता है। गौरी राग के भैरव तथा पूर्वी अंग के दोनों प्रकार हैं। इस शृंखला में अनेक ऐसे राग हैं, परंतु यहांपर केवल प्रचलित रागों के नाम दिए गएँ हैं।

 

शुद्ध रे ध वाले राग    

संधिप्रकाश रागों के पश्चात शुद्ध रे ध के प्रयोगवाले रागों का समय आरंभ होता है। इसमें भी सुबह तथा शाम के राग समाविष्ट हैं। सुबह के समय इस श्रेणी में बिलावल, देसकार, गौड़सारंग जैसे राग तथा शाम के समय कल्याण के प्रकार, भूपाली जैसे राग सुनने को मिलते हैं।

 

कोमल ग नी वाले राग

शुद्ध रे ध वाले रागों के पश्चात कोमल ग नी वाले रागों की बारी आ जाती है। इसमें भी दिन के तथा रात के समय के रागों को सुनने का आनंद मिलता है। साधारण तौर पर सुबह के दस से चार बजे तक तथा रात के दस से उत्तर रात्री के चार बजे तक इन रागों को सुनने को मिलता है। दिन में जौनपुरी, देसी तथा रात में बागेश्री, बहार तथा कंस के प्रकार सुनने को मिलते हैं।   

 

उत्तर राग तथा पूर्व राग

समयाधारित रागविभाजन के तत्व में रात के बारह से दिन के बारह तक तथा दिन के बारह से रात के बारह बजने तक के समय का विचार रखा गया है। रात से शुरू होकर दिन तक के रागों का वादी स्वर म प, ध नी सां इस सप्तक के उत्तरांग में होता है। उसी प्रकार दिन के बारह से शुरू होनेवाले रागों का वादी स्वर सा रे ग म प इस सप्तक के पूर्वांग में होता है। इसी कारण इन रागों को क्रमश: उत्तर राग या उत्तरांग वादी राग और पूर्व राग या पूर्वांग वादी राग कहा जाता है।

राजाज्ञेया सदा गेया न तु कालं विचारयेत 

प्राचीन काल के राजा महाराजाओं का फर्मान बड़े मायने रखता था। राजाज्ञा के अनुसार कोई राग किसी भी समय सुनाने का आदेश मानना पड़ता था।  

यह भी पढ़ने को मिला कि ...... 

एवं कालविधि ज्ञात्वा गायेद्य: स सुखी भवेत

रागवेलामगानेन रागाणाम हिंसकों भवेत 

य: श्रुणोति स दरिद्री आयुर्नष्यति सर्वदा


- संगीत मकरंद