Pages In This Blog

Wednesday, March 31, 2021

Some Definitions

 

कुछ उपयुक्त परिभाषाएँ

संगीत

गायन, वादन तथा नर्तन इन तीनों कलाओं को मिलाकर “संगीत” कहा जाता है।

अब इसके बारे में विचार करते समय मन मेँ अन्य सारी कलाओं को भी देखना होगा। चित्रकला, शिल्पकला, मूर्तिकला फोटोग्राफी या कोई और असंख्य कलाप्रकार हैं। इनमें और गायन-वादन-नर्तन मेँ ऐसा क्या अन्तर है, कि  जिससे इन सारी कलाओं को अलग रखा जाता है?

“सूर, लय और ताल” इन तीन चीजों के कारण इन तीन कलाओं को “संगीत” के अंदर समाविष्ट किया गया है। सूक्ष्मता से देखा जाएँ तो उपर्युक्त तीनों कलाप्रकारों मेँ इन तीनों की जरूरत होती है।

हाँ, यह बात विशेष है की नर्तन मेँ इन तीनों के साथ-साथ भावाभिव्यक्ति को अतिविशेष स्थान है। यहाँ अभिनय एक अविभाज्य अंग है, गायन या वादन मेँ जिसका महत्व उतना नहीं है। इसीलिए नृत्यारम्भ करते समय यह श्लोक अवश्य गाया जाता है –

“आङ्गिकम भुवनम यस्य वाचिकम सर्व वाङ्ग्मयम।

आहार्यम चंद्रतारादि तन्नुवम सात्विकम  शिवम”॥

 

अभिनय क्या है?

इसमें दो अर्थवाले शब्द हैं। एक है अभि’, जिसका अर्थ है दिशा दर्शन और दूसरा शब्द है नय जिससे ले जाना यह अर्थ प्रतीत होता है। नृत्य कलाकार अपने आंगिक, मौखिक, सात्विक तथा वेष की सहायता से दर्शकों को नृत्य के भावार्थ की तरफ ले जाते हैं। 

अध्वदर्शक स्वर

रागसमय के विभाजन के नियमों मेँ मध्यम स्वर का विशेष स्थान है। इसी कारण मध्यम को अध्व दर्शक स्वर कहा जाता है। संधिप्रकाश रागों का शुद्ध तथा तीव्र मध्यम के स्थान से सही निर्देशन यही स्वर करता है।

अल्पत्व

राग मेँ जिस स्वर को कम से कम महत्व दिया जाता है, या वर्जित किया जाता है, अर्थात उसे अल्पत्व दिया जाता है। यह दो प्रकार से सिद्ध होता है -  

१ लंघन अल्पत्व वह होता है, जिसका प्रयोग राग मेँ बिलकुल नहीं होता। जैसे मालकन्स मेँ रे या प

२ अनभ्यास अल्पत्व वह होता है जो स्वर रागविस्तार मेँ बहुत कम मात्रा मेँ लिया जाता है। जैसे बिहाग मेँ रे या ध।

बहुत्व 

रागविस्तार करते समय जिस स्वर को  विशेष महत्व दिया जाता है वह 'बहुत्व' कहलाता है। यहांपर वादी-संवादी को छोड़ कर अन्य किसी और स्वर का विचार है। जैसे केदार में पंचम पर अधिक रुका जाता है, आलाप का प्रारम्भ किया जाता है, समाप्ती भी की जाती है। ऐसे स्वर का "अलंघन बहुत्व" होता है। इसके विपरीत वादी-संवादी स्वर प्राय: अधिक प्रमाण में लिए जाते हैं। उन्हें "अभ्यास बहुत्व" की उपाधि दी गई है। 


अक्षिप्तिका

पूर्व काल मेँ संगीतशास्त्र तथा प्रयोग सटीक हुआ करता था। गायन के मूलभूत तत्व सही रूप से निश्चित थे। स्वर, लय तथा ताल के साथ शब्दों को जोड़ कर गायन प्रयोग किया गया, तब उसे अक्षिप्तिका यह नाम दिया गया।

अनिबद्ध गायन

अनिबद्ध गायन वह होता था, जब केवल आलाप के साथ राग विस्तार किया जाता था। यह ताल या शब्द के विरहित हुआ करता था। उसमें निम्न दिए जैसे प्रकार थे –

१ रागालाप वह होता था जिसमे शास्त्रों मेँ वर्णित रागों के दस लक्षण प्रतीत होते थे।

२ रूपकालाप मेँ रागों के दस लक्षणों के अलावा गीत के विभिन्न भाग केवल आलाप मेँ दिखाएँ जाते थे।

३ अलप्ति गायन मेँ ऊपर दिए हुएँ आलापों के साथ आविर्भाव-तिरोभाव का भी प्रयोग हुआ करता था।

४ स्वस्थान नियम यह होता था, जहाँ जितना हो सके उतने ऊंचे स्वर तक आलापी करने के पश्चात पुन: अपने स्वर (सा) पर पुनरागमन करना।

 

उपज

इसका वास्तविक अर्थ है सृजित होना, निर्माण होना। ख्याल सुंदरतापूर्ण आलापी के कारण सृजित होता है। एक छोटे आलाप के दूसरे रूप से आगे और नए नए रूप गायक के नजर आते हैं। इसीसे ख्याल पूर्ण रूप से विकसित होता है। इसी पद्धति उपज अंग कहा जाता है।

 

जन्य जनक राग

रागों के वर्गिकरण में मेल या ठाट के स्वरों को स्पष्ट रूप से दर्शानेवाला जो राग होता है उसे जनक राग कहा गया है। ऐसे रागों की शृंखला में उसी विशिष्ट राग का नाम उस मेल या ठाट को दिया जाता है। जैसे कोमल ग और कोमल नि का स्पष्ट रूप दिखानेवाला सरल राग काफी है और इसीलिए उसका नाम इस ठाट को दिया गया है। ऐसे राग को जनक राग भी कहा जाता है।

ठाट से जन्म लेनेवाले रागों को जन्य कहा जाता है। ठाट के लक्षण ऐसे रागों में  होना स्वाभाविक है। अनेक बार एक जैसे दिखनेवाले राग ऐसे ठाटों में होते हैं। उदाहरण के लिए देखें तो भीमपलासी, बागेश्री और काफी इन तीनों रागों के अवरोहण में काफी समानता दिखाई देती है। एक ठाट से असंख्य जन्य राग सृजित हो सकते हैं।

 

जाति

संगीत में जाति के विविध अर्थवाले शब्द प्रचलित हैं।

 

जातिगायन

पूर्वकालीन संगीत में यह प्रकार प्रचलित था। यद्यपि रागगायन का स्वरूप अधिक बदला नहीं, कई नाम बदल गए हैं। राग के दस लक्षण अपने गायन के द्वारा स्पष्ट करते हुए जातिगायन दिखाई देता था। ये दस लक्षण इस प्रकार हैं –

ग्रह, अंश, तार, मंद्र, न्यास, अपन्यास, अल्पत्व, बहुत्व, षाडवत्व और औडवत्व ये रागों के दस लक्षण माने जाते थे।

 

रागजाति  

राग में लगनेवाले स्वरों की संख्या पर आधारित राग निर्धारण को जाति कहा जाता है। जैसे पाँच स्वरों का औडव, छह का षाडव तथा सात स्वरों का सम्पूर्ण। इन्हीं तीन जातियों के आगे नौ प्रकार हो जाते हैं।

 

तालजाति

जाति ताल तथा लय कल्पना में भी विकसित है।

ताल की मात्राओं की गिनती के अनुसार पाँच मुख्य जातियाँ प्रचलित हैं। गायन में भी तान के प्रकार इस जाति से मेल खाते है।

चतुस्र जाति, जिसका रूप चार से विभाजित होता रहता है, जैसे ताल कहरवा, तीनताल वगैरह।

तिस्र जाति में यही काम डेढ़ या तीन मात्राओं के हिसाब से स्पष्ट होता है, जैसे ताल दादरा।

खण्ड जाति में पाँच या दस मात्राओं के हिसाब से ताल या तान प्रकार दिखते हैं जैसे झपताल की रचना।

मिश्र जाति के ताल में सात या चौदह मात्राओं का हिसाब होता है।

संकीर्ण जाति नौ या अठारह मात्राओं का रूप दर्शाती है।

 

तान

द्रुत लय में राग का विस्तार तान के विविध प्रकारों से बनता है। यहांपर आलाप और तान का परस्पर सम्बन्ध इस तरह से दिखाया जा सकता है –

राग का ताल के साथ विस्तार करते समय जब ज्यादह मात्राकाल में कम स्वर हों, तो वह आलाप बन जाता है। उसी प्रकार कम मात्राओं में अधिक से अधिक स्वर हों, तो वह तान बन जाती है। यह एक सहज दिखनेवाला रूप है।

तानों के अनेक प्रकार हैं।

सरल तान वह होती है जिसमे सीधा आरोह – अवरोह दिखाई देता है। जैसे सरेगमपधनी निधपमगरेसा वगैरह।

मिश्र तान में आरोहअवरोह का मिश्र रूप दिखाई देता है, जैसे सरेगम पमगरे गमपमगरे वगैरह।

कूट तान की रचना गुत्थीदार होती है। वक्र रूप से स्वर लिए जाते हैं, जैसे पगमरे साधपध मनिधनी गपमग रेगसारे वगैरह।

अलंकारिक तान समझने में सरलता होती है, क्यों कि प्रारम्भिक संगीतपाठ लेते समय गुरु शिष्यों को अनेक अलंकार सीखाते हैं। उन अलंकारों को यदि राग के स्वरों को गूँथा जाए तो वह अलंकारिक तान बन जाती है, जैसे सारेसारे रेगरेग गमगम मपमप......

लड़न्त तान में विविध लयकारी के पलटे समाए जाते हैं, जिनको ताल की चौखट में बिठाना पड़ता है, जैसे गगरेगगरेगरे              ममगममगमग...... वगैरह

गिटकरी तान में दो दो स्वरों की जोड़ियाँ पुनरूच्चरित की जाती है, जैसे गरे गरे मग मग पम पम धप धप .....

अचरक तान में एक ही स्वर को दो दो बार लिया जाता है, जैसे गमक में लिया जाता है। सासा रेरे गग मम पप ...

सपाट तान अति द्रुत लय में ली जाती है जो आरोही या अवरोही हो सकती है।

इसके अलावा हुनरवाले कलाकार अपने खास अंदाज़ से तानों के प्रकार बनाते हैं। पं. भीमसेन जोशी जी की अपनी एक खास तान थी, जो तार स्वरों में अति दृत गती से  सूक्ष्म कामगत करती थी।

 

पं. वेंकटमखी द्वारा रचित ७२ मेल

इस रचना में गणिती पद्धति से मेलों की रचना की गई है। प्रथम सप्तक के पूर्वार्ध के चार स्वरों को उत्तरार्ध के चार स्वरों के साथ जोड़ा जाता है। इसमें पूर्वाङ्ग से अलग अलग जोड़ियाँ बनाई जाती है। शुद्ध मध्यम के साथ इसकी व्याप्ति पूरी होने के बाद यही काम तीव्र मध्यम को लेकर किया जाता है। जिस तरह प्रथम ३६ जोड़ियाँ शुद्ध मध्यम से बनती हैं, उसी तरह तीव्र मध्यम का प्रयोग करके और ३६ जोड़ियाँ बन जाती हैं। कुल मिलाकर ७२ मेल बन जाते हैं। यहांपर हर मेलकर्ता का नाम तथा उसके आरोह अवरोह ध्यान में रखने पड़ते हैं।

पूर्वाङ्ग

१ सा रे रे म      ध सां

२ सा रे      नि सां

३ सा रे ग म     नि सां

४ सा रे     प ध नि सां

५ सा रे ग म     प ध नि सां

६ सा ग म    नि नि सां    

 

पूर्वाङ्ग के एकएक को उत्तरांग के सभी छह स्वरों को जोड़ने पर सब मिलाकर ३६ जोड़ियाँ बन जाती है। इसी काम को तीव्र मध्यम के साथ अगर बनाया जाएँ तो और ३६ जोड़ियाँ गणित से बन जाती है। यही है पं. वेंकटमखी द्वारा रचित ७२ मेलों की कहानी।