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Friday, May 23, 2025

राग समय के बारे में

 

संगीत श्रोतावलम्बी कला है। गायन, वादन या नर्तन की प्रस्तुति रसिकों, गुनिजनों या ज्ञानी अभ्यासकों के समक्ष हों तो कलाकार की अभिव्यक्ति में चार चाँद लग जाते हैं। ‘’स्वांत:सुखाय’’ संगीतराधना केवल रियाज़ के समय ठीक है। ऐसे भी कलाकार हैं, जिन्हे अपने रियाज़ के समय भी श्रोताओं की उपस्थिति आवश्यक लगती है। जब गुरुजन अपना रियाज़ करते हैं तब अन्य श्रोताओं के बजाय केवल शिष्यों का होना दोनों पक्षों के लिए अनुकूल होता है। वैसे संगीत की शिक्षा ‘’सीना ब सीना’’ होने की परम्परा है। गुरू-शिष्यों के सह जीवनक्रम की आवश्यकता संगीतविद्याग्रहण के साथ-साथ शिष्य के  अन्य जीवनावश्यक घटनाओं की परिपूर्णता के लिए भी महत्व रखती है। संगीत के ‘’घराना’’ या विरासत को अक्षुण्ण रखने में गुरुगृह में ही शिष्यों का निवास होना एक समय में आवश्यक हुआ करता था। आज जितनी भी गायन/वादन/नर्तन परम्पराएँ विद्यमान हैं, उनके विकास में यही सिलसिला पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता आ रहा है।

आज के जमाने में संगीत का जो स्तर है, उसको अनुभव करते हुए अनेक प्रश्नों का उपस्थित होना और उसका योग्य निराकरण होना जरूरी  है। आजकल का सबसे अधिक पूछा जानेवाला प्रश्न यह है कि                     

क्या शास्त्रीय संगीत का लोप हो रहा है?

इसका उत्तर ढूँढते समय एक बात को समझना होगा कि संगीत शिक्षा की परम्परा को अखण्डित रखने के लिए आजकल गुरुगृह में रहने की आवश्यकता और व्यवहार्यता नहीं है। कई प्रान्तों में सरकार के द्वारा गुरुकुल चलाए जाते हैं, उनका सारा खर्चा सरकारद्वारा उठाया जाता है, तथा रहने का और आहार व्यवस्था का भी सही प्रबन्ध किया जाता है। दुर्भाग्यवश अन्य सरकारी संस्थानों की तरह ऐसे गुरुकुलों का व्यवस्थापन भी संशय के घेरों में होता है।

अब इतना होने के बाद घरानेदार गायन-वादन की समृद्ध परम्परा क्या आज सही मार्ग से जा रही है? रागदारी संगीत की पूर्वापार सुन्दरता क्या आज भी टिकी है?

इस मुद्दे पर विचार करते समय आधुनिक अर्थव्यवस्था का विचार प्रथम सामने आता है। यद्यपि विनाशुल्क संगीत सिखानेवाले गुरुओं की आज कमी नहीं है, परंतु उनका यथोचित लाभ उठानेवाले शिष्यों की मनोधारणा में बदलाव जरूर आया है। सबसे प्रथम ज्ञानी गुरुओं का अधिक से अधिक समय का सहवास पाने के लिए शिष्य को अपने अन्य व्यवधानों को छोड़ देने की आवश्यकता होती है। आजकल की घड़ी में वह बहुत ही कठिन है।

आधुनिक काल में संगीत का अभ्यासक गुरु के मार्गदर्शन के साथ-साथ इंटरनेट का ढंग से उपयोग कर रहा है। कोरोना के कारण सामाजिक कार्यक्रमों पर बहुत सारे निर्बंध आ जाने से ऑनलाइन महफिलों की नवकल्पना सामने आ गई। अनेक प्रमाणित, सम्मानित तथा सुप्रसिद्ध कलाकारों ने अपना कलाप्रदर्शन फेसबुक लाइव तथा अन्य माध्यमों के जरिए जारी रखा। परंतु श्रोताओं की प्रत्यक्ष उपस्थिती न होने के कारण स्वयंस्फूर्ति का अभाव इसमे दिखाई दिया। ऑनलाइन उपस्थित श्रोतागण “लाइक” और अन्य “स्माइली”ओं का उपयोग करके प्रतिवचन देते हैं, अनुकूल-प्रतिकूल मत प्रदर्शित भी करते हैं। परंतु संगीत की अभिव्यक्ति पर इसका कोई परिणाम होता ही नहीं। कलाकार का रटा-रटाया आविष्कार बिना किसी जान के प्रदर्शित हो जाता है। बहुतबार फेसबुक लाइव का अर्थ भी कलाकार के ज़िंदा होने का एक प्रतीक केवल बन जाता है।

आजकल कई संस्थाओं द्वारा ऐसा संगीत प्रदर्शन “ऑनलाइन पेमेंट” के जरिए प्रस्तुत हो रहा है, जिससे कलाकारों के अर्थार्जन का मार्ग खुल गया है। यद्यपि इन महफिलों का प्रमाण कम है, कुछ कार्य आरम्भ हो चुका है, यह सत्य है।

राग समय के बारे में कुछ विचार

हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में रागों के “योग्य” समय पर गाने-बजाने के बारे में विशेष महत्व दिया गया है। इसके लिए दिन के चार तथा रात्रि के चार प्रहर, यानि आठ प्रहर के राग नियमबद्ध समयसारिणी के अनुसार समझाएँ गए हैं। इसके अलावा सन्धिप्रकाश रागों का भी विशेष वर्णन शास्त्रों में किया गया है। संगीत के अभ्यासक इस नियमावली का कठोरता से पालन करते हैं, यह बहुतांश रूप से देखा जाता है। यह समयचक्र क्या है, तथा इसका वर्णन किस तरह किया गया है इसे देखना बहुत महत्वपूर्ण है। इसी के साथ पूर्व राग और उत्तर राग क्या होते हैं, इसे भी देखना जरूरी है।

आजकल यू ट्यूब, व्हाट्सैप्प, फेसबुक जैसे लोकप्रिय समाज माध्यमों पर संगीत सुननेवालों के ग्रुप्स बन गएँ हैं, तथा दिनभर अनगिनत रागों के रेकार्डिंग्स एक-दूसरे को भेजे जाते हैं। ऐसी हालत में कोई समयानुसार रागों का श्रवण करता हो यह असंभव है। ऐसी अपेक्षा करना भी गलत है। दुर्भाग्यवश आजकल के हालात श्रोताओं के समक्ष संगीत कार्यक्रमों के न होने के हैं।

रागसमय के बंधन को ध्यान में रखते हुए अक्सर कई खास सभाओं का आयोजन किया जाता है, जहाँ केवल सुबह के सत्र होते हैं। बड़े नगरों में “दीपावली की प्रभात” होती है, जहाँ केवल भोर के समय के राग सुनने को मिलते हैं। ऐसे भी आयोजन होते हैं, जहाँ प्रभातसमय के संधिप्रकाश राग, सूरज के उगने के बाद गाए जानेवाले, तथा मध्यान्ह के समय के राग सुनने को मिलते हैं। शाम के सत्र में पूर्व सन्ध्या के समय के, शाम के संधिप्रकाश राग, सूर्यास्त के बाद वाले, रात के समयवाले तथा हो सके तो उत्तर रात्री के राग भी ऐसी सभाओं में श्रोताओं को सुनने को मिलते हैं। परन्तु आजकल समय की पाबन्दी के चलते रागसमय चक्र को सभाओं में अनुभव करना केवल नामुमकिन हो चुका है।

एक जमाना था, जब शाम को आरम्भ हुई संगीतसभा सुबह तक चलती थी। रसिक श्रोतागण बड़े पैमाने पर इसमें शरीक हुआ करते थे। रातभर सुने हुए गायन-वादन की मधुर स्मृतियाँ दूसरे दिन के अपने कार्यकलापों के साथ अपनी स्मृति में जगाकर रात को फिर दूसरी सभा में उपस्थित हुआ करते थे। फिर पूरी रात नए सुरों का मजा लेते लेते सुबह के सत्र में थकावट का नाम भी न लेते हुए बैठे रहते थे। आजकल केवल गिनेचुने संस्थानों में रात-दिन चलनेवाली संगीतसभाएँ आयोजित होती हैं, जैसे माणिकनगर का दरबार, मिरज या कुंदगोल का उत्सव।

ऐसी सभाओं में घरन्दाज गायक-वादकों के बड़ी संख्या में समाविष्ट  होने के कारण जानकार तथा गुणीजनों की उपस्थिती भी अधिक मात्रा में होती है। अप्रचलित तथा हर मेल के, आठों प्रहरों के राग सुनाने का अवसर कलाकारों को भी मिल जाता है। कई बार फर्माइशें भी पूरी हो जाने के कारण संगीत रसिक पूरी तरह तृप्त हो जाते हैं। रसिक श्रोताओं के लिए ऐसी सभाएं तीर्थस्थल बन जाती है।

इस पूरी बात का मूल है समयाधारित रागगायन। प्रातःकालीन रागों से आरम्भ करके आठों प्रहर के कुछ महत्वपूर्ण तथा लोकप्रिय रागों के नाम तथा उनका छोटा विवरण देने की यहाँ कोशिश करेंगे।

शास्त्रीय संगीत सुननेवालों के लिए तथा भारतीय संगीतशास्त्र को समझने की इच्छा रखानेवालों के लिए कुछ महत्वपूर्ण बातें बताने का प्रयास यहाँ किया गया है।

हिंदुस्तानी रागों के मुख्यत: तीन वर्ग हैं।

१ कोमल रे तथा कोमल ध वाले राग

२ शुद्ध रे तथा शुद्धा ध वाले राग

३ कोमल ग तथा कोमल नी वाले राग

पहले वर्ग के रागों को सन्धिप्रकाश के समय गाया/बजाया जाता है।  

 

 

 

प्रभात के संधिप्रकाश राग

                 

 

क्र.१ 

   

नाम

भैरव

रामकली

कालिंगड़ा  

ठाट

भैरव

भैरव

भैरव  

आवश्यक जानकारी - शुद्ध म का प्रयोग

सम्पूर्ण राग, को. रे ध, जनक, आश्रय राग   

भैरव अंग, तीव्र म तथा कोमल नी का प्रयोग

रे और ध पर आंदोलन नहीं होता  

 

 

सायंकालीन संधिप्रकाश राग

 

क्र

 

 

 

नाम

पूर्वी

पूरिया धनाश्री  

श्री

ठाट

पूर्वी  

पूर्वी

 

पूर्वी

आवश्यक जानकारी – तीव्र म का प्रयोग

दोनों म का प्रयोग, जनक, आश्रय राग   

नि रे ग से आरोह प्रारम्भ

 

सा रे म प नि आरोह   

 

 

हर नियम के अपवाद होते हैं। राग का सौंदर्यशास्त्र अलग है, तथा ठाट के नियम अलग हैं। प्रभातकालीन संधिप्रकाश रागों में तोड़ी को भी समाविष्ट किया जाता है, परंतु उसमें तीव्र म का प्रयोग होता है। उसी तरह राग भटियार भी प्रात:कालीन माना जाता है, जो मारवा ठाट का होने के कारण शुद्ध ध को महत्व देता है।

सायंकालीन संधिप्रकाश रागों में  मारवा भी समाविष्ट है, परंतु उसमें शुद्ध ध की बहुलता है। गौरी राग के भैरव तथा पूर्वी अंग के दोनों प्रकार हैं। इस शृंखला में अनेक ऐसे राग हैं, परंतु यहांपर केवल प्रचलित रागों के नाम दिए गएँ हैं।

 

शुद्ध रे ध वाले राग    

संधिप्रकाश रागों के पश्चात शुद्ध रे ध के प्रयोगवाले रागों का समय आरंभ होता है। इसमें भी सुबह तथा शाम के राग समाविष्ट हैं। सुबह के समय इस श्रेणी में बिलावल, देसकार, गौड़सारंग जैसे राग तथा शाम के समय कल्याण के प्रकार, भूपाली जैसे राग सुनने को मिलते हैं।

 

कोमल ग नी वाले राग

शुद्ध रे ध वाले रागों के पश्चात कोमल ग नी वाले रागों की बारी आ जाती है। इसमें भी दिन के तथा रात के समय के रागों को सुनने का आनंद मिलता है। साधारण तौर पर सुबह के दस से चार बजे तक तथा रात के दस से उत्तर रात्री के चार बजे तक इन रागों को सुनने को मिलता है। दिन में जौनपुरी, देसी तथा रात में बागेश्री, बहार तथा कंस के प्रकार सुनने को मिलते हैं।   

 

उत्तर राग तथा पूर्व राग

समयाधारित रागविभाजन के तत्व में रात के बारह से दिन के बारह तक तथा दिन के बारह से रात के बारह बजने तक के समय का विचार रखा गया है। रात से शुरू होकर दिन तक के रागों का वादी स्वर म प, ध नी सां इस सप्तक के उत्तरांग में होता है। उसी प्रकार दिन के बारह से शुरू होनेवाले रागों का वादी स्वर सा रे ग म प इस सप्तक के पूर्वांग में होता है। इसी कारण इन रागों को क्रमश: उत्तर राग या उत्तरांग वादी राग और पूर्व राग या पूर्वांग वादी राग कहा जाता है।