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Monday, July 27, 2020

INDIAN MUSIC FROM 17th CENTURY - A GLIMPSE

  औरंगजेब के दरबार में संगीत को आश्रय उसके उत्तरकाल में नहीं के बराबर था, किन्तु उसके शासन के पूर्वकाल में उसके दरबारी फकिरुल्ला ने राजा मानसिंह तोमर के लिखे ‘मानकुतुहुल’ इस ग्रन्थ का ‘रागतरंग’ इस नाम से फारसी अनुवाद किया था। उसने अनेक विद्वानों को भी सम्मानित किया था। इसी काल में पण्डित अहोबल का ‘संगीत पारिजात’, पण्डित लोचन का ‘राग तरंगिणी’, पण्डित हृदय नारायण देव का ‘हृदय कौतुक’ तथा ‘हृदय प्रकाश’ ऐसे नाना ग्रन्थ लिखे गएँ। दक्षिण भारत में पण्डित वेंकटमखी ने ‘चतुर्दण्डी प्रकाशिका’ इस अनमोल ग्रन्थ की रचना की। उसमें दक्षिणी संगीत में प्रचलित ७२ मेलकर्ताओं का सर्वप्रथम उल्लेख आता है। आखिरी मुग़ल बादशाह का नाम संगीत जगत में ‘मोहम्मद शाह रंगीले’ इस उपनाम से प्रसिद्ध है। वह स्वयं उत्तम रचनाकार तथा संगीततज्ञ था। ख़्याल संगीत के जनक सदारंग, अदारंग उसी के दरबार में मौजूद थे। इसी समय शोरी मियाँ की टप्पा गायकी का आविष्कार भी हुआ था। 

आज जो हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत गाया-बजाया जाता है, उसका मूल स्रोत इसी समय से मिलता है। जौनपुर के नवाब शाह हुसैन शर्क़ी को आधुनिक ख्याल का जनक माना जाता है। उसके राजाश्रय के कारण ख़्याल का प्रसार हुआ। बंगाल प्रांत में चैतन्य महाप्रभु तथा अन्य संतों के कारण भक्तिसंगीत तथा अध्यात्म को बढ़ावा मिला। मराठा काल में शास्त्रीय संगीत में अधिक वृद्धि या योगदान मिलने के आसार नहीं थे, किन्तु पूर्वकाल में यादव काल में जन्मे सन्त ज्ञानेश्वर से लेकर सन्त नामदेव, जनाबाई, एकनाथ, तुकाराम, स्वामी रामदास आदि अनेकों के द्वारा रचित अभंग, ओवी, भजन, कीर्तन, भारुड, गौलन आदि अनेक काव्यप्रकारों ने संगीत और साहित्य समृद्ध किया। राजा शिवाजी के काल में उत्तर भारतीय कवि भूषण की रचनाएँ बहुत प्रसिद्ध हुई। मराठा शासन के उत्तर काल में शृंगार तथा भक्तिप्रधान लावणी ने सारे हिंदुस्तान के जनमानस पर जादू डाला। अंग्रेजों के शासन काल में सारे भारत में संगीत को स्थानिक शासकों द्वारा मिलता हुआ आश्रय कम होता गया। उनके आर्थिक और राजकीय व्यवहारों पर अंगरेजों का नियंत्रण होने लगा। इसका प्रमुख उदाहरण है ग्वालियर का। ग्वालियर का शासन हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के विकास में अति महत्व का स्थान रखता है। स्वामी हरिदास, तानसेन, बैजु तथा अनेक महानुभावों का कार्यक्षेत्र रहा ग्वालियर, राजा मानसिंह तोमर के कारण तथा आगे चल कर सिंदीया घराने के कारण संगीत के उत्थान के लिए मशहूर था। 

आज प्रचलित ख्याल परम्परा के जन्मदाता हददु-हस्सू खाँ, रहमत खाँ, निसार हुसैन खाँ, बड़े मोहम्मद खाँ आदि श्रेष्ठ आद्य गुरुओं के पश्चात विष्णुपन्त छत्रे, बालकृष्ण बुवा, वासुदेव बुवा तथा विष्णु दिगंबर पलूसकर जैसे अनेक क्रान्तिकारी कलाकारों ने इस नगरी को घरन्दाज संगीत का मायका बनाया। इसी नगरी में पण्डितों का घराना भी अग्रसर रहा। शंकर पंडित, एकनाथ पंडित, कृष्णराव पण्डित, तथा आज भी इस घराने के एल. के. पण्डित तथा उनका परिवार इस नगरी की धरोहर का रक्षण कर रहा है। ग्वालियर जैसी अन्य रियासतें भी संगीत के रक्षण के लिए कार्यरत रही। उनमें प्रमुखता से बड़ौदा, रामपुर, मेंहरगढ़, जयपुर, मेवाड़, तलवंडी, अवध, लखनऊ, जौनपुर, पटियाला, नेपाल, इन्दौर, तथा बंगाल और उत्तरी पूर्व के अहोम रियासतें संगीत तथा संगीतकारों के आश्रय के लिए प्रसिद्ध रहीं। 

अंगरेजों ने हिन्दुस्तानी या कर्नाटकी संगीत के लिए विकास की दिशा में कुछ नहीं किया, परन्तु अनेक अंगरेजी अधिकारियों तथा व्यक्तियों ने यहाँ के संगीत का व्यक्तिगत रूप से अभ्यास किया। उनमें प्रमुख नाम सामने आते हैं वह इस प्रकार हैं – कैप्टन विलियर्ड, कैप्टन एन. अगस्टस, जे. डी. पैटर्सन, फ्रांसिस ग्लाडविन, फ्रांसिस फ़ोक, औसले, विलियम स्टाइफोर्ड, जे. नाथन, कर्नल पी. टी. फ्रेंच, ए. कैम्पबेल, जॉन डेवी, क्राफ़र्ड, बर्डवूड, बोसङ्क्वेट, कार्ल एंजल, डब्लू. हंटर, ए. सी. बर्नेल,फॉक्स स्ट्रैंगवेज़  ऐसे कई नाम हैं। इन सब का ज्यादहतर लेखन शास्त्र पक्ष में है। अंग्रेजों के काल में जयपुर के राजा प्रतापसिंह ने कलावंतों की सहायता से ‘’संगीत सार’’ इस ग्रन्थ की रचना की। महम्मद रज़ा ने ‘’नगमात-ऐ-आसफ़ी’’ लिखा। कृष्णनन्द व्यास ने ‘’संगीत रागकल्पद्रुम’’, तो कोलकोता के राजा सुरीन्द्र मोहन टागोर ने ‘’यूनिवर्सल हिस्टरी ऑफ म्यूज़िक’’, म्यूज़िक फ़्रोम वेरियस औथोर्स’’, ‘’हिन्दू म्यूज़िक’’ तथा संगीत को समर्पित बहुत सारा लेखन किया।

 बीसवी सदी के पूर्व काल में महाराष्ट्र में संगीत नाटकों के द्वारा क्रांतिका रक कदम उठाएँ गएँ। ख्याल, टप्पा, तराना, कजरी, ठुमरी, होरी आदि उत्तर भारतीय गायनप्रकार मराठी नाटकों में सजने लगे। पण्डित भास्करबुवा बखले, पण्डित गोविन्दराव पटवर्धन, पण्डित रामकृष्णबुवा वझे, पण्डित विनायकराव पटवर्धन, मास्टर कृष्णराव जैसे घरन्दाज गायन में माहिर कलाकारों ने पारम्परिक नाट्यसंगीत का ढांचा ही बदल दिया।पहले मराठी नाट्यसंगीत नारदीय कीर्तन के अनुरूप था। आर्या, ओवी, साकी, दिण्डी तथा अन्य पारम्परिक धुनों पर मंचीय गायन हुआ करता था। बालगन्धर्व, मास्टर दीनानाथ, पटवर्धनबुवा, सवाई गन्धर्व जैसे गायक-अभिनेताओं ने तथा हिराबाई बड़ौदेकर, ज्योत्स्ना मोहिले, ज्योत्स्ना भोले आदि अनेक गायिकाओं ने मंचीय संगीत को ऐसा शास्त्रीय रूप दिया कि इन गीतों को शास्त्रीय गायन के मंच पर भी उच्च स्थान मिल गया। इसी आकर्षण से उत्तर से दक्षिण में आए तबला नवाज़ उस्ताद अहमदजान थिरकवा साहब ने नाट्यसंगीत को अपने अनोखे वादन से चार चाँद लगाएँ। उस्ताद अब्दुल करीम खाँसाहब भी इसके आकर्षण से वंचित न हो सके। उनकी महफिलों में मराठी नाट्यगीतों का गायन श्रोताओं के एक आकर्षण की बात बन गई। इसी कालखण्ड में हिंदुस्तानी शास्त्रीय क्षेत्र में घटी अभूतपूर्व घटनाओं ने एक बहुत ही महत्वपूर्ण क्रान्ति को अंजाम दिया।

 १९०१ में लाहौर में विष्णु दिगंबर पलूसकर जी ने गान्धर्व महाविद्यालय की स्थापना की, जिसके कारण शास्त्रीय संगीत के द्वार आम जनता के लिए खुल गएँ। राजदरबारों तथा अमीर उमराओं की दहलीज पर अटकी संगीतकला अब स्वतन्त्र हो गईं। सारी बन्दिशों को विष्णु दिगंबर जी ने अपनी स्वयं की खोजी हुई स्वरलिपि में छपवाया। अनेक नगरों में अब संगीत की पाठशालाएँ खुलने लगी। ग्वालियर में भी १९१४ में शंकर गन्धर्व संगीत विद्यालय खुल गया। मुंबई, पुणे, दिल्ली, कोलकाता जैसे शहरों में आम जनता के लिए जलसे आयोजित होने लगे। संगीत कार्यक्रमों का आयोजन करनेवाली संस्थाओं का भी निर्माण होने लगा। 

 दूसरी ओर पण्डित विष्णु नारायण भातखण्डे जी ने पारम्पारिक बन्दिशें, ख्याल, तराने, ध्रुपद, धमार आदि छपवाकर उनको छह खंडों में संग्रह प्रसिद्ध किया। जिन बन्दिशों को पण्डित या उस्ताद सबके सामने गाने को मना करते थे, या गाएँ तो भी उनको विकृत स्वरूप में गाते थे, वह सारी चीजें सही स्वरलिपि में प्रकट हो गईं। यह भी एक अभूतपूर्व कार्य था। भातखण्डे जी के बाद अनेक विद्वानों ने ऐसे ग्रन्थों को प्रसिद्ध करना प्रारम्भ किया। ऐसे ग्रन्थकारों में प्रो. बी. आर. देवधर, पण्डित श्रीकृष्ण नारायण रातंजनकर, लक्ष्मीनारायण गर्ग, प्रभुलाल गर्ग, पण्डित शंकरराव व्यास, पण्डित राजाभय्या पूंछवाले, पण्डित रामकृष्णबुवा वझे, पण्डित विनायकराव पटवर्धन, पण्डित रविशंकर जैसे अनेक विद्वान हैं। इसी प्रकार संगीत विषय पर पत्रिकाएँ भी प्रकाशित होने लगी, जिनमें हाथरस का ‘’संगीत’’, गान्धर्व महाविद्यालय का ‘’संगीत कला विहार’’ जैसे अनेक प्रकाशन संगीतकारों तथा रसिकों के लिए अत्यन्त उपयुक्त साबित हुएँ। डा. अशोक रानडे, आचार्य बृहस्पति, पण्डित रामाश्रय झा, हरिश्चंद्र श्रीवास्तव, डा. गीता बैनर्जी, पण्डित निखिल घोष, डा. चैतन्य देव, फिरोज फ्रामजी तथा अनेक महानुभावों ने अपने संगीतविचार तथा संगीत से जुड़े विषयों पर ग्रन्थ रचनाएँ की है। आज के समय में अ. भा. गान्धर्व महाविद्यालय मण्डल, खैरागढ़ का विश्वविद्यालय, भारत गायन समाज, प्रयाग संगीत समिति, आदि देशव्यापी संगीत संस्थाओं के अलावा हर प्रान्त की सरकारें अभ्यासक्रम में संगीत का अन्तर्भाव कर रही हैं। देश के अनेक महाविद्यालयों में संगीत विषय लेकर स्नातक तथा स्नातकोत्तर शिक्षा का प्रावधान है।

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