महाभारत काल में संगीत की अधिक उन्नति हो गई। राजा महाराजाओं की प्रशंसा ‘गाथा संगीत’ इस प्रकार में आती थी। समाज के सारे घटक संगीत की शिक्षा लेते थे। नट, नर्तक, गायक, वादक, सूत, मगध, कथावाचक ऐसे कलाकारों के विभाग थे। श्रीकृष्ण की बांसुरी, अर्जुन का बृहन्नला के रूप में नृत्य ये उस समय के उच्च संगीत के उदाहरण है। सारेगम आदि सप्तस्वर, ग्राम, मूर्च्छना, स्वरस्थान, लय आदि शब्दों के प्रमाण महाभारत में मिलते हैं।
उसी प्रकार पुराण ग्रंथों में भी संगीत के अनेक सन्दर्भ हैं। वायुपुराण में सप्तस्वर, इक्कीस मूर्च्छनाएं, तीन ग्राम, उनचास तान के प्रकार आदि का उल्लेख है। उसी तरह मार्कण्डेय पुराण में भी गायन, वादन तथा नर्तन का विवेचन है।
उपनिषदों में ह्रस्व-दीर्घ-प्लुत के व्याकरण नियमों का उल्लेख है। बृहदा ख्योपनिषद में स्वरों के उच्चारण तथा उदात्त-अनुदात्त-स्वरित का भी वर्णन है।
भारतीय इतिहास के हर काल की ग्रंथ रचना में संगीत का वर्णन मिलता है तथा हर जमाने के संगीत की स्थिति पर उनसे प्रकाश डाला गया है। प्रतिशाख्य ग्रंथ में सप्तस्वरों के नाम कृष्ट, प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ, मन्द्र तथा अतिस्वार्य ऐसे दिए गए हैं। (ध्यान रहें की उस जमाने में स्वर अवरोही स्वरूप से दर्शाए जाते थे।) उसमें मन्द्र, मध्य तार स्थान तथा विलंबित, मध्य द्रुत लय की जानकारी भी दी गई है।
शिक्षा ग्रन्थों में संगीत का शास्त्र के रूप में हुआ विकास दिखाई देता है। षडज, ऋषभ, गांधार, माध्यम, पंचम, धैवत, निषाद यह स्वरनाम, स्वरों की विविध पशु-पक्षियों की ध्वनि से तुलना जैसे विषय उनमें हैं। इन ग्रन्थों में याज्ञवल्क्य, नारदीय, मांडूक्य, अमरेषि तथा पाणिनीय शिक्षा का अंतर्भाव है। पाणिनी की अष्टाध्यायी को इनमें अत्यधिक महत्व है।
इसके उपरांत जैनकालीन ग्रन्थों में संगीत समाज के हर स्तर तक पहुँच गया हुआ दिखाई देता है। मार्गी संगीत नयी व्यवस्था में पिछाड़ी को गया और देसी संगीत की लोकप्रियता के कारण हर वर्ग के लोग अपने दैनंदिन व्यवहार में संगीत का प्रयोग करने लगे। नित्य पूजापाठ में गायन का प्रवेश हुआ। अनेक ‘देसी’ रागों का निर्माण हुआ। तत, वितत, घन, सुषिर वाद्यों का प्रचार तथा प्रसार हुआ। दसवे शतमान में मुनि पार्श्वदेव संगीतशास्त्र के महान प्रणेता के रूप में उभर कर आएँ। ‘संगीतोपनिषद’, ‘संगीतसमयसार’ ऐसे ग्रन्थों का निर्माण हुआ। राग वर्गिकरण, रागांग, उपांग, भाषांग, क्रियांग, नृत्यशास्त्र पर भी विशेष लेखन हुआ। षटपुरुष रागों में श्री, भैरव, बसन्त, पंचम, मेघ तथा नट्नारायण इन रागों के नाम इन ग्रन्थों में दिए गएँ हैं।
जैन काल संगीत के लिए सुवर्णकाल माना गया है।
इसके पश्चात बौद्ध काल में भी संगीत चरमसीमा पर पहुँच गया। बौद्ध धर्म प्रचारक गायन, वादन, नर्तन तथा अभिनय के साथ प्रचार करते थे। भगवान गौतम बुद्ध ने आत्मसंयम की तुलना सूक्ष्मता के साथ जुड़ी हुई वीणा से की थी। उस समय तक्षशीला, वाराणसी, नालन्दा, विक्रमशिला, तदंतपुरी आदि शिक्षा के प्रमुख केन्द्र थे, तथा वहाँ संगीत का शास्त्र भी सिखाया जाता था। ‘गुप्तील जातक’ ग्रंथ में कलाकार, विविध वाद्य, गुरु परम्परा, नर्तन आदि अनेक विषयों का वर्णन मिलता है। ‘जातक’, ‘पितक’, ‘दिव्यवदान’ इन ग्रन्थों में उस समय के संगीत का वर्णन है। राजाओं के हाथों से कलावंतों को सम्मान मिलता था।
इस समय पाँच वर्गों में वाद्यों का वर्गिकरण किया गया था, जैसे आतत, वितत, आतत-वितत, घन तथा सुषिर। आतत वाद्य केवल एक तरफ से चमड़े से मढ़े हुए, दोनों तरफ से मढ़े हुए वितत, आतत-वितत में वीणा जैसे वाद्य, घन और सुषिर जैसे नाम आज होते हैं, वैसे ही थे। किन्नर जाती के लोग इन वाद्यों को बजाने में माहिर थे। ‘मृद-अंग’ इस वर्णन के सार्थ मृदंग यह वाद्य मिट्टी से ही बनाया जाता था। वाद्यवृन्दों का आयोजन बहुत ही लोकप्रिय था। आज भी प्राचीन साँची, नालन्दा, मथुरा में मिले स्तूपों पर वाद्यवृन्दों के शिल्प देखने को मिलते हैं। अजंता तथा एलोरा के शिल्प भी उस जमाने के वृन्दों को दिखाते हैं।
भरत मुनि का काल चौथे शतमान का है। भरतमुनी के ‘नाट्यशास्त्र’ में संगीत पर जो साहित्य मिलता है, उसी पर आज के संगीतशास्त्र की नींव रखी गई है। नाट्य, नृत्य, गायन, वादन, नाट्य के लिए वस्तु की रचना, वाद्यों के प्रकार, उनका वर्गिकरण आदि अनेक विषयों पर इस ग्रन्थ में विवेचन है। भरतमुनि ने ताल के दशप्राण की जानकारी दे कर पाँच जातियों की तथा ‘मार्गी-देसी’ तालों की भी पुष्टि की है। वीणावादक की निपुणता तथा उसके सूक्ष्म अभ्यास से ही श्रुतियों का ज्ञान होना सम्भव होने का विचार उन्होने रखा है। वृन्द वादन के नियम भी बताएं हैं। ‘वीणावादन तत्वज्ञ: श्रुतिर्जाति विशारद:’ ऐसा उनका वचन भी प्रसिद्ध है। भरत का शास्त्रमत आगे चल कर सर्वतोपरी रहा। वादी-संवादी-अनुवादि-विवादी इन स्वरों की जानकारी भरतकाल से ही सर्वविदित हुई। शुद्ध-विकृत स्वर, अलंकार, आदि का महत्व भी विदित हुआ। नृत्य का शास्त्रीय विवेचन, उसके लिए उचित सामग्री, वेषभूषा, मंच, आसन व्यवस्था, वाद्य, वादक तथा शिक्षक का स्थान इन विषयों पर भी इस अध्याय में चर्चा है।
इसके उपरान्त मौर्यकाल में साहित्य तथा संगीत का विशेष रूप से अध्ययन/लेखन हुआ। कालिदास, भास आदि कवियों का वह काल था। चन्द्रगुप्त के समय सेल्यूकस के कारण यूनानी संगीत से अपना देश परिचित हुआ। सेल्यूकस की बेटी एथेना यूनानी संगीत में प्रवीण थी। भारतीय तथा यूनानी संगीत में आदान प्रदान तभी से ही शुरू हुआ। सम्राट अशोक के काल में संगीत शृंगार को छोड़ कर भक्तिप्रधान बना। उसके पश्चात समुद्रगुप्त के काल से शक, हूण, कुषाण आदि संस्कृतिओं के मिलाफ़ के कारण भारतीय कलाविष्कार को नए आयाम मिले।
इस समय तक संगीत का प्रचार तथा परिचय जनसामान्यों तक हो चुका था। छठवी शताब्दी तक शास्त्रविभाग में भी काफी लेखन हो चुका था। मतंग का ‘बृहददेशी’ यह ग्रन्थ इसी काल का है। ‘ग्राम राग’ इस संगति का प्रथम प्रयोग मतंगमुनी ने ही किया है। इस ग्रन्थ के अन्तर्गत स्वराध्याय, रागाध्याय तथा प्रबन्धाध्याय प्रकरण मुख्य हैं। अलंकार, स्वर, श्रुति, चतु: सारणा, मूर्च्छना, ग्राम, आदि चीजों का उपयोग संगीत के अन्दर उस समय में हो रहा था। ग्रामराग और देसीराग ऐसा विभाजन प्रचलित हो गया था। शुद्धा, भिन्ना, गौड़ी, वेसरा, साधारणी जैसी पाँच गीतियों को भी उपयोग में लाया जाता था। रागों के अन्तर्गत शुद्ध, भाषांग, क्रियांग, रागांग तथा उपांग भेद माने जाते थे। मतंग के काल में रागों की व्यवस्था में पूरा स्वरूप स्पष्ट हो चुका था। उसके समय तक स्वतन्त्र रूप से गायन करने की पद्धति को अपनाया गया था। उसी के अन्तर्गत प्रबन्ध गायन का प्रकार रूढ हो गया था। (इससे ये तात्पर्य है कि उस समय तक समूहिक पठन को ही महत्व था। सामगायन से ही गायन कला का अर्थ सीमित था।)
सातवी सदी में हर्षवर्धन के काल में संगीत चरमसीमा पर था। राजा स्वयं कवि, लेखक तथा संगीत पारंगत था। गायन और नृत्य में भी उसका ज्ञान अच्छा था। ‘’हर्षावली’’ यह उसी का लिखा हुआ नाटक उच्च कोटी का लेखन प्रयोग है। उसके दरबार में कलाकारों का सम्मान किया जाता था। बाणभट्ट यह प्रसिद्ध कवि उसी के आश्रय में था। मतंग का ‘बृहद्देशी’ यह ग्रन्थ इसी काल की देन है।
हर्षवर्धन के राज्यकाल के बाद भारत की अखण्डता नष्ट हो गई। संगीतकारों का जीवन संकुचित बन गया। कला की अवनति का समय शुरू हो गया। आपस में ज्ञान की लेन-देन की भावना नष्ट होने लगी। परंतु अपने-अपने प्रदेशों में प्रादेशिक संगीत को बढ़ावा मिलता रहा। इस समय का राजपूताना संगीत प्रसिद्ध हुआ। कल्हण का ‘राजतरंगिणी’ यह ग्रन्थ इसी काल में लिखा गया है।
भवभूति के ‘महावीर चरित’, ‘मालती-माधव’, जयदेव का ‘गीतगोविंद’ तथा अन्य अनेक नाट्य, संगीत तथा चिकित्साग्रंथ इसी काल में लिखे गएँ।
इस कालखण्ड के पश्चात भारत में मुसलमानों का आक्रमणकाल प्रारम्भ हुआ। संगीत के लिए यह काल परिवर्तन का सिद्ध हुआ। ईरान के दरबार में हिंदुस्तानी संगीतकारों को आमंत्रित किया जाने लगा। ईरानी संगीत का प्रभाव भारत में दिखाई देने का प्रारम्भ इसी काल से हुआ। भारतीय संगीत की आध्यात्मिक नींव बदल कर उसमें विलासीनता का उद्भव होने लगा। इसी काल से हिंदुस्तानी और दक्षिणाधी संगीत का भेद दृष्टिगोचर होने लगा।
बारहवी सदी में अल्लाउद्दीन खिलजी के समय से उत्तर भारत का संगीत नयी शैली में परिवर्तित होने लगा। नए गायनप्रकार, नए ताल तथा नएँ वाद्य प्रचार में आ गएँ। कव्वाली का उदय हुआ। सरपरदा, साजगिरी, ईमन जैसे अनेक नएँ राग संगीतजगत में आ गएँ। भारतीय वीणा का आधार लेकर ‘’सेहतार’’ इस वाद्य का आविष्कार किया गया, तथा अन्य ईरानी तंतुवाद्यों को भारत में प्रचलित किया गया। देवगिरि के दरबार से तत्कालीन विद्वान गोपाल नायक को दिल्ली लाया गया तथा उनसे अमीर खुसरो ने भारतीय रागों का परिचय पा कर उनके नएँ रूप विकसित किए।
तेरहवि सदी में शार्ङ्ग्देव का ‘संगीत रत्नाकर’ यह अति महत्वपूर्ण ग्रन्थ लिखा गया। इसमें संगीत के सारे प्रकार, वाद्य, नाट्य, साहित्य आदि विविध विषयों की विस्तृत जानकारी है। ध्वनि, नाद, श्रुति, स्वर, सप्तक, आरोह-अवरोह, वर्ण, अलंकार आदि के अलावा स्वरों के विविध रंग, उनकी पशु-पक्षियों के नाद के साथ समानता, ग्राम, मूर्च्छना, विविधा जातियाँ तथा लक्षणों की भी प्रस्तुति दी गई है। तानों के विभिन्न प्रकार वर्णित करते हुए शार्ङ्ग्देव ने प्रस्तार, खंडमेरु के बारे में भी बताया है। उसने तीस ग्रामराग, आठ उपराग, बीस राग तथा भाषा, विभाषा, अंतरभाषा, रागांग, भाषांग, उपांग, क्रियांग ऐसे सारे प्रचलित गायनप्रकारों की जानकारी दी है।
शार्ङ्ग्देव ने अपने समय के संस्कृत, प्राकृत तथा देसी प्रबन्ध तथा उन के प्रकार यानि सूड प्रबन्ध, आलि प्रबन्ध, विप्रकीर्ण प्रबन्धों का भी वर्णन किया है। इसके अलावा ध्रुव प्रबन्ध भी प्रचलित थे, जिसका परिवर्तन ध्रुवपद में हुआ ऐसा माना जाता है।
उस जमाने में प्रचलित बीस देसी तथा मार्गी ताल प्रचार में थे। तत, अवनध, घन तथा सुषिर वाद्यों के भी वर्णन इस ग्रन्थ में हैं। वाद्यों का स्वरूप, वादनविधि तथा उनका निर्माण वर्णित किया गया है। वादन के गुण-दोष तथा नियम भी बताएं गएँ हैं। सुषिर वाद्यों में मुरली, शंख, सुरंगा, काहल तथा अवनध वाद्यों में मर्दल, हस्तपाट, सोलट जैसे वाद्यों के नाम भी बताएं गएँ हैं। लय का भी विस्तृत वर्णन है।
नृत्य के विशेष प्रकरण में नृत्य, नाट्य, नृत्त आदि विषयों पर उपयोगी चर्चा है। देसी, लास्य, ताण्डव, मार्गी, मण्डल, चारी मार्ग, अंग-प्रत्यंग, एकसौ करन, अंगहार आदि विषय पर समग्र विवरण है। हस्तमुद्राएँ, पदन्यास, अभिनय, नवरस तथा भावाभिव्यक्ति इन पर भी इसमे विस्तृत विवेचन है।
सोलहवि सदी तक भारतीय संगीत में विशेष रूप से कुछ बदलाव नहीं हुआ। पण्डितों ने अपने संगीत पर हुए मुसलमानी आक्रमणों को दूर करके मूलस्वरूप को पुनश्च लाना चाहा, परन्तु उसमें कोई यश प्राप्त नहीं हुआ, इतना परिवर्तन उसमे हो चुका था। यवनी संगीत के कव्वाली, गज़ल, ठुमरी रेख़ता आदि संगीतप्रकार प्रचलित थे।
पंद्रहवी सदी में मध्य भारत में ग्वालियर के राजा मानसिंह तोमर ने हिंदुस्तानी संगीत में अपना अपूर्व योगदान दिया। उनके द्वारा रचित ‘मान कुतूहल’ इस ग्रन्थ के कारण हिंदुस्तानी संगीत उच्च कोटी के द्वार पर फिर पहुँच गया। (मुग़ल काल में औरंगजेब के दरबारी फकिरुल्ला ने इस ग्रन्थ को फारसी में ‘रागदर्पण’ नाम से अनुवादित किया।) राजा मानसिंह की पत्नी मृगनयनी, बैजु तथा अनेक गुणी कलाकार इस काल के संगीत के ध्वजधारी थे।
The purpose of this blog is to highlight some important points of ancient Indian Music through write ups and articles. There is a wide variety of musical thoughts, instruments and styles Here some old articles are re-written with new references. My published books are - The Beginners' Book On Hindustani Music (2 Editions), Tabla - Principles And Art and Naad Rang. Exploring the path is always enjoyable.
Thursday, July 23, 2020
पुराण काल से सोलहवी सदी तक
हिंदुस्तानी तथा कर्नाटक संगीत की कुछ रंजक बातें
हिंदुस्तानी तथा कर्नाटक संगीत की कुछ रंजक बातें
अपने देश का संगीत, यहाँ की सांस्कृतिक परंपरा प्राचीन है। पुराणकाल में लिखे गएँ रामायण, महाभारत सहित अन्य ग्रन्थों में वीणा, पटह, भेरी, शंख, पणव, आनक, गोमुख
जैसे अनेक वाद्यों के नाम पढ़ने को मिलते हैं। यद्यपि पुराणकाल का समयकाल ईसवीपूर्व
वर्षों में बता नहीं सकते, परन्तु यह तो सामान्य तौर पर समझ
में आता है, कि विश्व के अन्य देशों की तुलना में अपने देश का संगीत अधिक पुराना, तथा शास्त्राधारित है। भगवान कृष्ण के होठों पर
बांसुरी, माता सरस्वती के हाथ में वीणा, भगवान शंकर की नृत्य मुद्रा तथा उनके हाथ में डमरू, नारद जी के गले में वीणा, उसी प्रकार अनेक कथाओं में उल्लेखित अनगिनत वाद्य और
सामगायन के उल्लेख देख कर उसका महत्व अधोरेखित होता है। हजारो वर्षों से खड़े प्राचीन
शिल्प भी इसी महत्व को दोहराते हैं। नृत्यों में उपयोगी हस्त मुद्राएँ, पदन्यास तथा वस्त्र और आभूषण, विविध वाद्य, बजानेवाले कलाकार, राजाओं के दरबार, वहाँ सुननेवाले लोग यह सारी बातें हमें आज भी ऐसे
शिल्पों में देखने को मिलती हैं।
विश्व के हरेक देश की अपनी अपनी धरोहर है। इजिप्त, मेसापोटेमिया, रोम, ग्रीस, अझटेक, चीन, माया जैसी प्राचीन संस्कृतियाँ संगीत के विकास के लिए
भी जानी जाती है। अरेबियन प्रथा के अनुसार बुलबुल को ईश्वर ने स्वर्ग से धरती पर
संगीत प्रसार के लिए भेजा है। विश्व के सारे विज्ञानियों के अनुसार संगीत का उगम
निसर्ग से ही हुआ है। आजका पाश्चात्य संगीत इन्हीं विविध संगीत पद्धतियों का
अनुसरण करके लोकप्रिय बना है।
पर्शियन संगीत को ‘मुकामात फ़ारसी’ कहा जाता है। पर्शियन धारणा के अनुसार देवदूतों ने
संगीत की खोज की है। दुनिया के अन्य लोगों ने उसे उन्हीं से अपनाया है। वाद्यों की
खोज तत्वज्ञों ने की है यह भी वहाँ माना जाता है। जैसे प्राचीन हिंदुस्तानी
संगीतशास्त्र में छह मूल रागों का सिद्धान्त था, वैसे
पर्शियन संगीत बारह वर्गों में बंटा है, जिन्हें ‘मक़ाम’ कहा जाता है। उसी प्रकार उसी में से दो ‘शोबूह’ तथा चार ‘गोशूह’ बनते हैं। ‘मक़ाम’ हिंदुस्तानी
रागों से, ’शोबूह’ रागिनीओं
से तथा ‘गोशूह’ पुत्र और
उनकी भार्याओं से मेल खाते हैं। अभ्यासकों को ज्ञात होगा कि प्राचीन भारतीय
संगीतशास्त्र में षट्पुरुष राग, उनकी भार्याएँ तथा उनके
पुत्र और पुत्रवधुओं का वर्णन मिलता है।
Latin भाषा में संगीत को मूसीका Mousica कहा जाता है, यूनानी में मौसिकी Mousike, फ्रांसीसी में मूसिक Mousique, पोर्तुगीज
में मूसीका Musica, जर्मन में मुसीक Musik तथा इंग्लिश में म्युझिक Music इन शब्दों
में संगीतकला को जाना जाता है।
संगीत क्या है?
गायन, वादन तथा नर्तन को संगीत कहा जाता है। स्वर, लय तथा ताल
यह तीन बातें इसमें समान होती हैं। इन तीनों के साथ जब शब्दों का
मिलाफ़ हो जाता है तो वह गीत बन जाता है। कविता जब सुरों के साथ बँधी जाती है तब
दूध में शक्कर जैसी उसकी मिठास बढ़ जाती है।
एक बंदिश में संगीत के महत्व के बारे में गाया गया है,
जग में अगर संगीत न होता
कोई किसी का मीत न होता
ये अहसान है सात सुरों का
के दुनिया वीरान नहीं।।
हिंदुस्तानी संगीत की तालपद्धति मात्राओं की संख्या
पर निर्भर है। जैसे चार मात्राओं का कहरवा, छह
मात्राओं का दादरा, सात मात्राओं का रूपक, आठ मात्राओं का धुमाली, कव्वाली, या
आधा वगैरह।
गायक या वादक को हर समय हाथ से ताल दे कर अपनी
प्रस्तुति देने की कोई जरूरत नहीं होती। ताल-लय पर अधिकार हो तो तालवाद्य
बजानेवाले की ओर देखते हुए गाने की भी जरूरत नहीं पड़ती। हस्तक्रिया होनी ही चाहिए, ऐसी बात भी नहीं होती।
परन्तु अगर आप कर्नाटक संगीत का कार्यक्रम सुन रहे
हैं, तो यह हस्तक्रिया आप जरूर
देखेंगे। गायन करनेवाले कलाकार अपनी प्रस्तुति के साथ-साथ अपने ताल के ‘आघात’ यानि
सशब्द तथा नि:शब्द क्रियाएँ अवश्य दिखाएंगे। इतना ही नहीं, हर मात्रा का हिसाब भी
दर्शाएंगे। उसी क्रिया का यथास्थित पालन मृदंग, घट, मुर्सिंग
या कंजिरी वादक करते हुए आप देख पाएंगे। पूरे समय उनका यह कार्य बिना रुके चलता
है। एक तालवादक के ‘तनियावर्तन’ के समय अन्य वादक तथा गायक भी केवल हस्तक्रिया करते
हुए, उसे प्रोत्साहित करते हुए आप देख
पाएंगे। गानेवाले की ‘कृति’ की सारी लयप्रक्रिया तालवाद्य वादक अपने हिसाब से
हूबहू पुनरावर्तित करते हैं। इसे श्रवण करना एक अद्भुत अनुभव होता है। यहाँ पर
सारे तालवाद्यों का अनोखा नादगुण तथा वादक का कौशल्य श्रोतागण देख और सुन पाते
हैं। सबका हुनर यहाँ पर कसौटी पर उतरकर आता है।
प्राचीन काल में अपने हाथ की उँगलियों पर स्वरस्थान
निश्चित किए गएँ। हाथ के पंजे को वीणा का रूप दे कर हर उँगलियों के विभागों पर
सप्त स्वर स्थापित करने के कारण हाथ के पंजे को ‘गात्रवीणा’ यह नाम दिया गया। वेदों की ऋचाओं का गायन अँगूठे से
उँगलियों के विभागों पर स्पर्श से स्वरदर्शित किया जाता था। यज्ञसमय पर साम गायन
किया जाता था। इसी में ‘’मार्गी संगीत’’ का उद्गम था। ‘’मोक्षमार्गं निगच्छति’’ यही संगीत का उद्देश्य हुआ करता था। अधिक तर यह यज्ञ करनेवाले पुरोहितों
तक ही सीमित था। दूसरी ओर केवल संगीत को अपनानेवाला एक विशिष्ट वर्ग था, जिसे ‘गन्धर्व’ कहा
जाता था। उनके साथ अप्सराएँ हुआ करती थी जिनका जीवनकार्य नृत्य था। यक्ष, किन्नर तथा गन्धर्व स्वर्ग में देवों के मनरंजन के लिए नियुक्त थे। इनको
अतिमानवी रूप मिला था। कश्यप मुनि पिता तथा रवसा, मुनि, क्रोधा, विश्वा यह उनकी माताएँ थी। कालान्तर से
यह समाज संगीत कला का व्यवसायी बन गया। अपनी रूढ़ि परम्पराओं के अनुसार जो लोकसंगीत
समाज में था उसे ‘’देसी संगीत’’ कहा गया। रामायण काल से ही राजदरबारों में ‘गन्धर्व’, ‘सूत’, ‘मगध’, ‘बन्दी’, ‘नर्तिका’, ‘वारांगना’ आदि समाज के घटक संगीतव्यवसायी थे। राक्षसराज रावण अत्यन्त उच्च कोटी का
संगीत मर्मज्ञ तथा कवि था। उस काल में विपंचि, वल्लकी, काण्ड वीणा, कर्करी, कौपशीर्षा, अवधारित नामक वीणाप्रकार, डिंडिम, मृदंग, नूपुर, आडम्बर, करताल, दुंदुभि, पटह, भेरी, पणव, मगज, कुम्भ, चेलिका, शंख, मंड़ुक जैसे अलग-अलग वाद्य प्रचलित थे।
वेणु, बाकूर, तूणव, गोधा, नली, सुणव, भारधुनि, जैसे सुषिर वाद्य थे। द्रवप, भूदुंदुभी, गर्गर, केतुमत, विंधगज्य जैसे अवनध वाद्य थे। संगीत के प्रात्यक्षिक से धन प्राप्ति का
उद्देश नहीं होता था। लव-कुश को अपने गुरु वाल्मिकी से रामकथा गायन से धन-कांचन की
स्वीकृति न करने की आज्ञा थी। रामायण काल के लेखन में स्वर, लय, ताल, मूर्च्छना
आदि अनेक शब्दों का जिक्र है।
महाभारत काल में संगीत की अधिक उन्नति हो गई। राजा महाराजाओं की प्रशंसा ‘गाथा संगीत’ इस प्रकार में आती थी। समाज के सारे घटक संगीत की शिक्षा लेते थे। नट, नर्तक, गायक, वादक, सूत, मगध, कथावाचक ऐसे कलाकारों के विभाग थे।