Pages In This Blog

Wednesday, September 16, 2020

संगीत माइनस श्रोता, समस्या समय की!!

 

      संगीत श्रोतावलम्बी कला है। गायन, वादन या नर्तन की प्रस्तुति रसिकों, गुनिजनों या ज्ञानी अभ्यासकों के समक्ष हों तो कलाकार की अभिव्यक्ति में चार चाँद लग जाते हैं। ‘’स्वांत:सुखाय’’ संगीतराधना केवल रियाज़ के समय ठीक है। ऐसे भी कलाकार हैं, जिन्हे अपने रियाज़ के समय भी श्रोताओं की उपस्थिति आवश्यक लगती है। जब गुरुजन अपना रियाज़ करते हैं तब अन्य श्रोताओं के बजाय केवल शिष्यों का होना दोनों पक्षों के लिए अनुकूल होता है। वैसे संगीत की शिक्षा ‘’सीना ब सीना’’ होने की परम्परा है। गुरू-शिष्यों के सह जीवनक्रम की आवश्यकता संगीतविद्याग्रहण के साथ-साथ शिष्य के  अन्य जीवनावश्यक घटनाओं की परिपूर्णता के लिए भी महत्व रखती है। संगीत के ‘’घराना’’ या विरासत को अक्षुण्ण रखने में गुरुगृह में ही शिष्यों का निवास होना एक समय में आवश्यक हुआ करता था। आज जितनी भी गायन/वादन/नर्तन परम्पराएँ विद्यमान हैं, उनके विकास में यही सिलसिला पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता आ रहा है।

      आज के जमाने में संगीत का जो स्तर है, उसको अनुभव करते हुए अनेक प्रश्नों का उपस्थित होना और उसका योग्य निराकरण होना जरूरी  है। आजकल का सबसे अधिक पूछा जानेवाला प्रश्न यह है कि                     

क्या गुरुकुलों से "परम्परा संगीत" जीवित रखा गया है?

     इसका उत्तर ढूँढते समय एक बात को समझना होगा कि संगीत शिक्षा की परम्परा को अखण्डित रखने के लिए आजकल गुरुगृह में रहने की आवश्यकता और व्यवहार्यता नहीं है। कई प्रान्तों में सरकार के द्वारा गुरुकुल चलाए जाते हैं, उनका सारा खर्चा सरकारद्वारा उठाया जाता है, तथा रहने का और आहार व्यवस्था का भी सही प्रबन्ध किया जाता है। दुर्भाग्यवश अन्य सरकारी संस्थानों की तरह ऐसे गुरुकुलों का व्यवस्थापन भी संशय के घेरों में होता है।

    अब इतना होने के बाद घरानेदार गायन-वादन की समृद्ध परम्परा क्या आज सही मार्ग से जा रही है? रागदारी संगीत की पूर्वापार सुन्दरता क्या आज भी टिकी है?

    इस मुद्दे पर विचार करते समय आधुनिक अर्थव्यवस्था का विचार प्रथम सामने आता है। यद्यपि विनाशुल्क संगीत सिखानेवाले गुरुओं की आज कमी नहीं है, परंतु उनका यथोचित लाभ उठानेवाले शिष्यों की मनोधारणा में बदलाव जरूर आया है। सबसे प्रथम ज्ञानी गुरुओं का अधिक से अधिक समय का सहवास पाने के लिए शिष्य को अपने अन्य व्यवधानों को छोड़ देने की आवश्यकता होती है। आजकल की घड़ी में वह बहुत ही कठिन है।

     आधुनिक काल में संगीत का अभ्यासक गुरु के मार्गदर्शन के साथ-साथ इंटरनेट का ढंग से उपयोग कर रहा है। कोरोना के कारण सामाजिक कार्यक्रमों पर बहुत सारे निर्बंध आ जाने से ऑनलाइन महफिलों की नवकल्पना सामने आ गई है। अनेक प्रमाणित, सम्मानित तथा सुप्रसिद्ध कलाकारों ने अपना कलाप्रदर्शन फेसबुक लाइव तथा अन्य माध्यमों के जरिए जारी रखा है। परंतु श्रोताओं की प्रत्यक्ष उपस्थिती न होने के कारण स्वयंस्फूर्ति का अभाव इसमे दिखाई देता है। ऑनलाइन उपस्थित श्रोतागण “लाइक” और अन्य “स्माइली”ओं का उपयोग करके प्रतिसाद देते हैं, अनुकूल-प्रतिकूल मत प्रदर्शित भी करते हैं। परंतु संगीत की अभिव्यक्ति पर इसका कोई परिणाम होता ही नहीं। कलाकार का रटा-रटाया आविष्कार बिना किसी जान से प्रदर्शित हो जाता है। फेसबुक लाइव का अर्थ भी कलाकार के ज़िंदा होने का एक प्रतीक केवल बन जाता है।

    आजकल कई संस्थाओं द्वारा ऐसा संगीत प्रदर्शन “ऑनलाइन पेमेंट” के जरिए प्रस्तुत हो रहा है, जिससे कलाकारों के अर्थार्जन का मार्ग खुल गया है। यद्यपि इन महफिलों का प्रमाण कम है, कुछ कार्य आरम्भ हो चुका है, यह सत्य है।