अभ्युदय
संगीत श्रोता का
लेखन – नंदन हेर्लेकर
संगीत की किसी भी शाखा
का अध्ययन करने से पहले
अभ्यासक को एक उत्तम श्रोता बनने की आवश्यकता होती है | जो विद्यार्थी अनेक वर्षो तक अच्छा संगीत
सुनने के पश्चात अपनी खुद की इच्छा के अनुसार संगीत सीखना प्रारंभ करता है, उसके मन
पर सूर-लय-ताल के अच्छे संस्कार हो जाते हैं| संगीत की शिक्षा लेने के लिए आवश्यक मेहनत का प्रमाण, बुद्धि, उमर, और उसके निर्धार की कसौटी की परीक्षा हो जाती है|
अर्थात एक सामान्य श्रोता की भूमिका से प्रत्यक्ष कला का आविष्कारक होने तक का उसका
प्रवास बडा रोचक हो जाता है| एक सक्षम कलाकार के बनने में अनेक वर्षो की तपस्या की आवश्यकता होती है| कच्ची उम्र में संगीत शिक्षा का आरम्भ करने का फायदा तब दीखता
है जब युवावस्था में ही वह मंचासीन हो जाता है|
जहां जहां उत्तम श्रोता
है, वहां अच्छा संगीत उपजता है, फुलता है तथा उस नगर की प्रसिद्धी अल्प समय में नजदीक के क्षेत्र में होने लगती है|
वहां जितना महत्व कलाकार का होता है, उतना या उससे भी अधिक अच्छे श्रोता का है| वह
श्रोता भी जानकार, मर्मज्ञ और बहुत संयमशील होता है| संयमशील इसलिए कि ऐसा श्रोता एक
कलाकार को उभरने के लिये पूरा समय मिलें, उसके गुणो को विकसित होने का अवसर मिलें,
सटीकता से दोषो का निराकरण करनेवाले मार्गदर्शक को पूरा सहयोग मिलें, इन सारी बातों
पर ध्यान देनेवाला होता है| विद्वान गुरु के समक्ष उसका
ज्ञानार्जन कितनी गहनतासे हो रहा है, उसपर भी उसका ध्यान होता है| केवल ऐसा श्रोता ही कलाकार की कलाप्रस्तुती का सही रसग्रहण कर सकता
है| रसिकता उसका स्थायी गुण होता है| परन्तु रसिक, जानकार, मर्मज्ञ बनने से पहले उसे केवल एक उत्सुक श्रोता होना बहुत जरुरी
है|
वैसे देखा जाएं तो संगीत
सुनने की भी एक कला है| कला का आस्वाद लेना यह उसकी अगली कडी है| आस्वाद लेते समय उस कला का तकनीकी मर्म समझने की भी जरुरत
नहीं होती| सुंदरता का स्पर्श जिसको
महसूस होता हो, वही रसिक कहलाता है|
अभिजात हिंदुस्तानी संगीत का आस्वाद लेने की चाहत रखनेवाले को पहले सुनने की आदत होनी चाहिये|
पहले पहले उसे यह संभ्रम
होता है कि इतने सारे लोग एक घंटे से भी अधिक समय तक चलनेवाले ‘आ....ऊ...’ जैसी आवाजों को कैसे सुनते बैठते हैं! कविता
के समान एकाध शब्द को पुनरावर्तित करते हुए होनेवाले गायन को क्यों दाद देते रहते हैं? तबला बजानेवाला एक जैसा ‘बीट’
बजाते रहता है, अचानक कभी कभी जबरदस्त आवाजें
तबले से निकालता है
और जब सारे लोग जोरजोरसे ‘वाहवाह’ कहते हैं, उसी समय फिरसे वही पुराना धीमा ‘बीट’
बजाना शुरू कर देता है|
पहली बार गायन सुननेवालेको यह सबकुछ बड़ा अजीबसा लागता है| उसके मन में गूढता निर्माण हो जाती है| इस
गूढता की खोज करना उसकी एक जिम्मेदारी बन जाती है| धीरेधीरे उस गूढता की पहल उसे सूझने
लगती है| एकही बार जाकर शास्त्रीय संगीत सुननेवाले उस महाशय को अब फिरसे गायन सुनने की इच्छा हो जाती है| पहली बार सुनी हुई
कुछ मजेदार बात उसे फिरसे शायद ही सुननेको मिलती है, परन्तु उससे भी कुछ अलग परन्तु
मनको भानेवाली बात उसको आनंद देती है| कभी कभी पुन:प्रत्यय
का आनंद भी मिल जाता है| उसी क्षण से उसके मनको संगीत की कुछ कुछ समझ आने की संभावना
शुरू हो जाती है| पहले सुनी हुई कोई हरकत फिरसे सुनने के पश्चात उसकी समझ और सुधर जाती
है, कुछ शब्दों से वह परिचित होने लगता है| हरबार उसे नयी अनुभूति हो जाती है| उसको यह समझ में आने लगता है कि शास्त्रीय संगीत ‘मोनोटोनस’
न हो कर उसमें हरक्षण नवीनता होती है, नयी नयी कल्पनाओं
का सृजन उसके अंदर होते रहता है, तथा शास्त्रीय
संगीत में सूर, ताल तथा
प्रमाणबद्ध तरीके का चक्राकार भ्रमण होते रहता है|
अब अनेक कार्यक्रम सुनने पश्चात कुछ प्रमाणित शब्द, पद्धतियाँ, तालें,
स्वरनाम, रागों के नाम इन सारी बातों का परिचय उसे होने लगता है| फिर कुछ अनुभव के
आधार पर महफ़िल का वर्णन वह अपने शब्दों में करने का प्रयास करने लगता है| खुद को
‘रसिक’ कहलाने में उसे आनंद मिलने लगता है| कुछ चुने हुए रागों का भी परिचय उसे होने लगता है| सर्वसामान्य
श्रोता की तरह इस अवस्था में कविता (बंदिश) का आधार लेकर ही उसे राग पहचानना संभव
हो जाता है, जैसे ‘एरी आली पियाबिन’ यानि यमन, ‘कान्हा रे’ यानि केदार, ‘लंगर
कांकरिया’ यानि तोड़ी, ‘जागो मोहन प्यारे’ यानि भैरव वगैरह|
रागदारी संगीत को
समझने की यह पहली सीढ़ी है!! शब्दप्रधानत्व यह गायन कला की रीढ़ की हड्डी है|
शास्त्रीय संगीत में भी शब्दबहुलता अपना महत्व रखती है| इसी के फलस्वरूप ऐसा
श्रोता गायक कौन सी चीज गा रहा है, इसी बात पर ध्यान देता है, ना कि चीज कैसी गया
रहा है| इसीलिए इस मनोवस्था में स्वरों का यथोक्त परिचय ना होने के कारण कोई और
बंदिश की प्रस्तुती होने पर उसे राग समझने में कठिनाई हो जाती है| इस गतिविधि को
हम कहेंगे कि राग का नादमय परिचय ना होना| रागों का नादमय होने के लिए ऐसे श्रोता
को कुछ और इंतजार करना पड़ता है| श्रवणसातत्य के होने से स्वरों की नजदीकी समझ में
आनी लगती है| स्वरों का आशय उलगने लगता है| इसके बाद ही स्वरप्रधान गायकी का मर्म
उसकी अंतरशक्ति में प्रवेश करने लगता है| यही क्षण है, जब उसका ‘सुनना’ सही में
प्रारंभ होता है| ‘ख्याल’ का मतलब समझ में आने लगता है| इसी अवस्था में गानेवाले
के ‘ख्याल’ में वह बहने लगता है| ख्याल समझने की परिपक्वता, योग्य मनोभूमिका तैयार
होने लगती है| राग का सौंदर्यतत्व समझने की आगे की सीढ़ी वह चढ़ जाता है|
इस अवस्था में भी
उसका ध्यान सर्वपरिचित रागों की तरफ होता है| ऐसे रागों की खास स्वरपंक्ति उसके
कर्णरंध्रों में भारी रहती हैं| जैसे कि बागेश्री सुनते समय वह’ ‘मपध मग रे
सा’ सुनने की आतुरता रखता है| ख्याल सुनने की सही आदत के कारण उसे अब कईं स्वरनाम
याद होने लगते हैं| केवल आकार की आलापी से स्वर पहचान लेने की प्रगति भी हो जाती
है| बंदिश को सुनकर राग पहचानने की उसकी आदत अब नष्ट होकर केवल स्वरों की पकड़
सुनने के तत्क्षण राग पहचानने तक सुधर जाती है| राग विस्तार की कल्पना अपने स्वयं
के गुनगुनने तक उसकी प्रगति हो जाती है| गर आवाज अच्छी हो तो परिचित राग की
सुरावटें वह खुद गाने लगता है| अबतक अनेकों का गायन सुनने के कारण उसके गुनगुनने
में भी कुछ वजन आ जाता है| शब्दों का आकर्षण अधिक होने के कारण अनेकों से सुनी हुई
चीजें हूबहू गाने की क्षमता उसमें आ जाती है| ‘कोठीवाले गवैयों’ जैसी उसकी भी
‘कोठीवाले श्रोता’ की प्रतिमा प्रसिद्ध होने लगती है| (एकएक राग की सैंकड़ों
बंदिशें गानेवाले गवैये को एक जमाने में ‘कोठीवाले गवई’ कहा जाता था)| पुणे नगरके
सुप्रसिद्ध आबासाहेब मुजूमदार, बेलगांव के देउलकर मास्टर या कुंदगोल के देसाई
अण्णा जैसे गणमान्य श्रोता हरेक सुसंस्कारित नगरी में होते हैं| उनकी संगीत सुनने
की अमीरी इतनी होती है, कि ‘रसिकों के राजा’ कहलानेवाले बड़े बड़े कलाकार भी ऐसे
श्रोताओं के उपस्थित ना होनेपर नाराज हों| गाते समय अगर ऐसी कोई व्यक्ति महफ़िल में
आ जाएं तो गाने का रंग अधिक गहरा हो जाता हों| मैंने स्वयं अनुभव किया है कि कुमार
गंधर्व हों या भीमसेनजी, देउलकर मास्टर के आने तक अपना गायन भी प्रारंभ नहीं करते
थे| ऐसे रसिक श्रोताओं की भी स्मरणशक्ति इतनी सूक्ष्म होती है कि बरसों बाद भी उसी
दिन का समय, गाया हुआ राग और गायी हुई बंदिशें हुबहूँ वे गा कर सुनाते हैं| एक
पीढ़ी ऐसी थी कि जब उनके पास ना टेप रिकार्डर था, ना कोई और सामान! परंतु बंदिशें
तो सुनकर ही रट ली थीं उन्होंने!!
नयें कलाकारों को
ऐसी व्यक्ति हमेशा आदरणीय होती है| जबही मौका मिलें, उनसे मिलने या गप्पे लगानी की
वे राह देखते हैं| कोई उत्साह के साथ या कोई कुछ मानसिक दबाव में उनके सामने अपनी
कला को प्रस्तुत करते हैं तथा उनकी राय जान लेते हैं| मार्गदर्शन प्राप्त कर लेते
हैं| ऐसी व्यक्ति उस कलाकार का जोश बढ़ाने का काम जरूर करती है| ओंकारनाथ ठाकुर,
सलामत नझाकत, बड़े गुलाम अली, छोटा गन्धर्व, अहमदजान थिरकवा, राम मराठे, अमीरखाँ,
रवि शंकर, अली अकबर, यशवंतबुवा जोशी जैसे महान कलाकारों का संगीत सुने हुए श्रोता
जब ऐसे युवा कलाकारों के सम्मुख अपने अनुभव बताते हैं, तब यूट्यूब से भी बढ़कर उन कलाकारों
का चरित्र उनके सामने आ प्रकटता है| कभीकभी उनकी सारी विशेषताओं का प्रात्यक्षिक
ऐसे बुजुर्गों से नई पीढ़ी को प्राप्त हो जाता है| हर्ष, विषाद, दुख, कारुण्य,
विरह, मिलन जैसे सारे भाव गतपीढ़ी के महनीय कलाकारों के गायन के द्वारा कैसे प्रतीत
होते थे, इसका सही वर्णन ऐसे बुजुर्ग श्रोताही कर सकते हैं| ‘जहाँ हमारी नजर नहीं
पहुँचती, वहाँ आपका स्वर पहुंचता है’ जैसे वर्णनात्मक वाक्य भी ऐसे सम्माननीय
श्रोताओं के मुख से सुनने को मिलते हैं| उनके वर्णन करने की क्षमता को देखकर सच्चे
संगीतप्रेमी की आँखों में आँसु आ जाते हैं|
सच्चे श्रोता की
मनोभूमिका को समझने के लिए हम अब अकबर के दरबार में पहुंचेंगे|
सम्राट का
संगीतप्रेम देख कर सारे दरबारिओं का संगीतप्रेम चरमसीमा पर पहुँच गया| जो भी कोई
तानसेन को देखें, ‘वाहवाह’ की बरसात करने लगा| तानसेन के स्वर लगाने से पहले ही
वाहवाही की खैरात सुनकर सम्राट का क्रोध बढ़ गया| उसने हुकूम छोड़ दिया कि इसके बाद
‘वाहवाह’ करनेवाले की गर्दन उड़ाई जाएगी|
हर जगह समशेरधारी
खड़े हो गएँ| अपूर्व शांति में तानसेन का गायन रंग भरने लगा| उसके स्वरों की नशा से
मानो सारा माहौल विस्मयचकित हो गया| स्वरसम्राट तानसेन के स्वरों का भराव जैसेजैसे
उत्कंठा से गूंजने लगा, तब अचानक एक कोने से ‘वाहवाह!’ सुनाई दी| समशेर उठ गई|
सारा दरबार डर गया| सम्राट ने सैनिक की उठी समशेर को रोक दिया और उस दरबारी को आगे
आ जाने का हुक्म दे दिया| डर के मारे कांपता हुआ वाह सबके सामने आ गया| सम्राट ने
कहा, “मृत्यु को देखते हुए भी तुम्हारा सच्चा संगीतप्रेम देख कर मैं खुश हूँ| आज
से तुम वहाँ पीछे नहीं, संगीत के सम्राट तानसेन के बिल्कुल सामने बैठकर गायन
सुनोगे”| धन्य वह तानसेन और धन्य वह श्रोता!!
यह हकीकत हों या
किंवदंती| असली श्रोता की मनोभूमिका स्पष्ट करनेवाली यह बात है, इसमें कोई संदेह नहीं|
लेखन - नंदन
हेर्लेकर
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