नहीं रोना, भागेगा कोरोना
गीत अब तो मैं क्या गाऊँ वीरानें महलों के दर पर।
सुर कैसे दिल को रिझाएँ रंगविहीन इन गलियारों पर॥
क्यों आता है रोना सब को रोना..... कोरोना॥
युद्ध विश्व में फ़ैला मानव हारा मौत निहारा
छूटा हाथ से हाथ प्यारा फ़ैला क्यों अँधियारा?
किसकी भूल किस पर बरसे!! क्यों आता है
रोना.....कोरोना॥
नहीं दुनिया में इलाज इसका सावधानी के अलावा
भीड़ को रोको, स्पर्श न करो स्वच्छ रखो पहनावा
मुंह पर पट्टी राखो फिर तो भागेगा कोरोना.......क्यों
रोना.....नहीं रोना...
घर पर बैठ के ध्यान जपन से पाओ मन की शान्ति
कर इज्जत उन डॉक्टर नर्स की पुलिस भी रक्षा करती
हो परिवार की ख्यालि खुशाली दुख न किसी को होना
......नहीं रोना....
भागेगा कोरोना........नहीं रोना........भागेगा
कोरोना
रचना
नन्दन हेर्लेकर
nandanherlekar@gmail.com
02/04/2020
अनाम पथ
वतन के कोने से कोने तक पड़ा हुआ हूँ बिखरा।
आने जाने वालों का मैं बोज़ उठाता सारा॥
सुख में कोई दुख में कोई कोई जंग से हारा ।
सोचता रहता हूँ कि क्यूँ कोई मुझे नहीं प्यारा ॥
देखता हूँ मरा किसी को आपात काल का ग्रास ।
मार कर जो चला भि जाएँ करता नहीं दुस्वास
उसका करता नहीं दुस्वास ॥
मूँद न सकता हूँ आंखे अब शुष्क हो गयी ऐसी ।
देख देख कर मरण निरन्तर खुलि रहती है वैसी ॥
मानो सचमुच मर भि गया हूँ देख मौत का खेल ।
है कोई धोने वाला जग में मेरे तन का मैल॥
सुख नहीं होता युवक नाचते 'मेरे यार कि शादी' ।
ढमढम बजता ढ़ोल सज कर चलती है शहजादी ॥
कभी विजय के नारे लगते ऊंचाकर कंधे पे निशान ।
हार गले में लाल गुलाली देखी नेताजी की शान ॥
किसी खिलाड़ी का यश पूरा लोक मनाता होता जश्न ।
कभी किसी स्वामी के दर्शन से सुलझता जीवन प्रश्न ॥
राम कृष्ण येशु अल्लाह का जुलूस भी मेरे तन को छूता ।
फिर भी किसी का भक्त नहीं मैं मन मेरा अ - छूता ॥
वारयोषिता किसि कोने पर तीर वासना के चुभवाती ।
तृतियपंथियों की टोलि कहीं ताली की बरसात कराती ॥
लाल टमाटर आलू गोभी रास रचाते मेरे ऊपर ।
फूल पंखुड़ी पत्ते पन्ने चिपके रहते मेरे तन पर ॥
नालियों की सड़ी गंदगी फूली रहती ढेरे बन कर ।
सूअर कुत्ते झगड़ झगड़ते भौंकाकर गर्दन फुला कर ॥
मुझे सुना देती नहि गाली गिरा पल्लू मैं नाही देखता ।
सड़का फल ना नीरस करता, नाही मुझे दुर्गन्ध भी आता ॥
झुग्गि झोंपड़ी तम्बू टपरी ढाबा है खपरैल यहाँ ।
जगमग चकमक शीशों वाला मॉल है बिग बाजार जहाँ ॥
कहीं मर्सिरीज़ टोयोटा तो शेवरोले का ढंग अनूप ।
फटे सिले टायर के चक्के फरफर करता स्टोव्ह कुरूप ॥
पिझ्झा बर्गर कार मेँ बैठे बैठे खाते कोक भी ठंडा ।
आधी चाय और भज्जी खा कर फुरसद से खाते हैं अंडा ॥
नहि दब जाता सीना मेरा किसि दबंग की कार के नीचे ।
नहि झुक जाता सिर भी मेरा हाथगाड़ी के दर्द के पीछे ॥
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केबलवाले बिजलीवाले पेट कहीं भी चीर डालते ।
सहता हूँ सब सेवा का व्रत मन मेँ ला कर बिना झेंपते ॥
उत्सव हर मौसम होता है उर मेँ खम्भा ठोंक ठोंकते ।
हर फन मौला मैं भी गाता मेरे दुख मेँ हर्ष समाते ॥
रंगों का त्यौहार भी मेरा, शव के फूल जो गिरते, मेरे ।
अंधों की लकड़ी भी मेरी, बूढ़ों के वाकर भी मेरे ॥
आंदोलन करनेवालों के पत्थर भी मेरे सीने पर ।
रक्तलालची गुंडों के सब शस्त्र भी गिरते मेरे ऊपर ॥
जहाँ नहीं है चौड़ा सीना तोड़ डालते मकान दुकान ।
मुझे नहीं सुखदुख उसका है, होती है पर नइ पहचान ॥
जहाँ सँकरी गलि है वह भी मैं ही हूँ सब धूल भरा ।
गायें बकरी घोड़े कुत्ते दरिद्रता का दिन सारा ॥
मिट जाता दुख दरिद्रता का सोये कोई पिये शराब ।
बेघर का घर बन जाता हूँ सुख उसका क्यों करूँ ख़राब? ॥
करतूतें काली छिप जाती बसते सारे गैर यहाँ ।
होंगे वे बेमुर्वत पर मैं सोचूँ वे जाएंगे कहाँ? ॥
नन्दन हेर्लेकर
२७/०५/२०१५
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