महाराष्ट्र का संगीत
तथा
हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत का दक्षिण
भारत में प्रवेश
उत्तर हिन्दुस्तानी संगीत की भागीरथी
दक्षिण
भारत में आचार्य पण्डित बालकृष्णबुवा इचलकरंजीकर जी ने सर्व प्रथम प्रवर्तित की यह
संगीत के इतिहास में सिद्ध है। अर्थात उसके पहले इस भाग में, विशेष रूप
से मराठी समाज में संगीत का स्वरूप कैसा था, यह अभ्यास का
विषय है। आज हम जो शास्त्रीय ख्यालगायन सुनते हैं, वह दक्षिण
भारत मे, विशेष कर महाराष्ट्र में तथा उत्तरी कर्नाटक में
सामान्यतः डेढ़सौ वर्षपूर्व अस्तित्व में नहीं था। परन्तु लोकसंगीत तथा परम्परा से
चले आ रहे भक्तिसंगीत के नानाविध प्रकार सैंकड़ों वर्षों से वहाँ पर पीढ़ी दर पीढ़ी मौजूद
थे। रागाधारित पद्यरचनाएँ, सन्त साहित्य, आर्या, ओवी, साकी, दिंण्डी, नाना प्रकारों के वृत्त (अक्षरगण वृत्त,
मात्रा वृत्त) पर आधारित पद्यरचनाएँ, गाने की रूढ़ियाँ अनेक
घरानों में थी। रामदासी, वारकरी,
गोंधली, बारीवाले, तमासगीर, कोल्हाटी, बहुरूपी, वासुदेव, जैसे बहुरंगी और बहुढंगी स्वरूप में लोकसंगीत जनमानस में गहराई तक डूबा
था। हर गीत की चालें सीदी-सादी थी। एक या दो स्वर पंक्तियाँ पूरी रचना में गाई
जाती थी।
अनेक शतकों से
हरिदासी कीर्तन और वारकरी भजन सम्प्रदाय इन दोनों का मराठी जनमानस पर अभी भी बहुत
गहरा प्रभाव है। सैंकड़ों वर्षों से चली इन दोनों परम्पराओं को केवल भक्तिभाव ही नहीं, पर सामाजिक
सु-संस्कार का एक अंग तथा अभिजात संगीत का, तथा लोककलाओं के
आधारभूत घटक का इसको महत्व था। इन दोनों कलाओं में अभिनय,
संभाषण, नृत्य, वेषभूषा, वादयवादन जैसी सारी उप कलाओं का पोषण और जतन करनेवाली जादू थी।
स्तोत्र, देवता-आवाहन, अभंग, पद, आर्या, ओवि, साकी, दिंण्डी कटाव, आरती में हरिदासी कीर्तन की विशेषता हैं/थी। इस पन्थ में समृद्ध गायन
परंपरा थी। दूसरी ओर रामदासी पन्थ की भी समाज जीवन पर पकड़ थी। समर्थ रामदास स्वामी
जी के रचित श्लोक, ओवि, करुणाष्टक का
समूहिक गायन केवल रामदासीओं का ही नहीं, बल्कि सारे मंदिरों
में परिपाठ था। छंदोबद्ध कविताओं का गायन पाठशालाओं का एक आवश्यक भाग था।
पाणिनीकृत व्याकरण और वृत्तदर्पण घरो-घरों में रटा जाता था। अक्षरगणवृत्तों तथा
मात्रावृत्तों को उनके बीजश्लोकों के साथ याद किया जाता था। संतसाहित्य में
प्रत्येक पदों के लिए सूचित किए हुए राग, उनकी चालें वृद्धों
तथा बालकों को भी को अवगत हुआ करती थी। इतना ही नहीं, उन
चालों में कुछ भी फेरबदल करने का अधिकार किसी को भी नहीं था। सामान्य से सामान्य
आदमी भी इस संगीत का प्रेमी था। ऊपर दिए हुए काव्य प्रकारों के अलावा चूर्णिका, वेंचे, दोहे, अभंग, पद्य, ओवी, चौपदी, अष्टपदी आदि घरों-घरों में गाएँ जाते थे। ज्ञानेश्वर, नामदेव, मुक्तेश्वर, दासोपंत, तुकाराम, रामदास, एकनाथ आदि
संतों की भक्ति-रचनाएँ तथा रघुनाथ पण्डित, वामन पण्डित, श्रीधर पण्डित, मोरोपन्त आदि कवियों की कविताओं का
याद रहना भूषण हुआ करता था। ‘गाथा सप्तशती’ का घर में होना सु-संस्कृत होने का एक लक्षण था। सदविचारी गृहस्थों के घरों
विधि-विधान के सारे ग्रन्थों का होना जरूरी हुआ करता था।
वासुदेव, बहुरूपी, गोंधली जैसे लोककलाकारों का आना-जाना लोकसंगीत का बीज बोने जैसा था।
कोंकण के दशावतार, चित्रकथी, ललित, धवले, कलसुत्री बाहुली,
पांगुली यह भक्तिभावना से प्रेरित आदिम संगीत हर मौसम सुनने को मिलता था।
शिमगोत्सव, गणपत्योत्सव तथा हर गाँव के मेले
काव्यशास्त्रविनोद के बहुत बड़े पर्व हुआ करते थे। प्राचीन काल में जन्म, मृत्यु, नामकरण, विवाह, स्थानांतरण, शिकार,
कष्टोंवाला सामूहिक काम ऐसे सारे प्रसंगों में संगीताविष्कार को उत्तेजना मिलती
थी। नगारा, ढ़ोल, बेत की छड़ी, खंजीरा, बांसुरी, बाम्बू के
टुकड़ों से बने तालवाद्य मंजीरा, सूखे हुए फलों के बीजों से
बने वाद्य, पाँव के वाले, कद्दू को
जोड़े हुए अलगूज़, टिपरी, ताशा, सम्बल, सींग, तुतारी, शंख, भेरी ऐसे वाद्य इन प्रसंगों पर बजाएँ जाते थे।
छत्रपति शिवाजी महाराज
के काल में पोवाड़ा का गायन हुआ करता था। उत्तर भारत के कवि भूषण ने उनके दरबार में
गाई हुई शिवस्तुति आज भी लोकप्रिय है। पेशवाओं के काल से आजतक आम जनता में अति
प्रिय हुआ फड़ (लोकनाट्य) का संगीत तथा लोकवाङमय मराठी मानस की गहराई तक पकड़ लिया
हुआ संगीत है। लोकनाट्य की नींव रचनेवाले परशराम, होनाजी बाल, प्रभाकर, अनंत फंदी, राम जोशी, जैसे महान कलावन्त और उन्होंने बनाया हुआ संगीत हर मराठी घर में अंतःपुर
तक जा बसा। वीररसयुक्त पोवाड़ा, बिरहवाली विरानी, समाजोन्मुख उपदेश करनेवाले फटके, भक्तिपूर्ण तथा
शृंगारप्रधान लावणी जैसी रचनाओं ने मराठी संगीत को नया साज पहनाया। डफ, तुनतुना और घुँघरू इन तीन वाद्यों ने सप्तस्वरों को नयी दिशा दिखाई। इस
संगीत को अपनानेवाला एक स्वतन्त्र वर्ग समाज में निर्माण हुआ।
गीत-वाद्य-नृत्य इन
तीनों कलाओं से युक्त संगीत भरतकाल से सर्वमान्य है, पर लोकनाट्य से उपजा नृत्य नए
संगीत का अविभाज्य घटक बन गया। शृंगाररस का गर्व बढ़ता चला। पोतराज, बहुरूपी, भराडी, गोंधली, भूत्या, वाघ्या-मुरली यह
मल्हारी-महालसा, जोतिबा के भक्त इस काल के संगीत का घटक बन
गएँ, तो कलावन्तीण (नर्तिका, गायिका)
के नए पन्थ का उदय हुआ। नाच्या, नर्तिका, साज़िंदे, मालकिन, जैसों का
नयी व्यवस्था में उदय हुआ। नमन, गण-गौलन, मनरंजक और बुद्धिप्रधान संवाद, सवाल-जवाब, ढोलकी और पदन्यास की जुगलबंदी, नेत्रपल्लवी के साथ
दिल को चुभानेवाले अभिनय का उद्गम इसी काल में हुआ। ताल, लय, स्वर, शब्द तथा उत्कट भावनाओं के मिलाफ़ का संगम
लावणी के लावण्य में हुआ। यह अपूर्व नवसंगीत था। उत्तर भारत की ठुमरी से प्रभावित
स्वरप्रधान बैठक की लावणी मराठी संगीतसृष्टि में अवतीर्ण हुई। पोवाड़ा, भारुड़, सोंगी भजन, कोल्हाटी
जैसे नाना प्रकार गाँव-गाँव घूम कर रंजन के साथ-साथ वैचारिक स्तर पर भी प्रिय हुए।
एकतारी लेकर गांवो में घूमनेवाले साधू, बैरागी भी इस मालिका
के पात्र बन गए। हाथ में ऊद और डफ लेकर गानेवाले सूफ़ी फ़कीर भी इस परम्परा का
हिस्सा बने। भोर की बेला में वासुदेव अपने सुहाने गीत गाते-गाते रंजन और उपदेश
करता था। देवदासिओं के संगीत का मिज़ाज कुछ और था।
ऐसे सुश्रुत समाज
में पण्डित बालकृष्णबुवा नया संगीत महाराष्ट्र में लाएँ यानि कौनसा ऐसा संगीत लाएँ, यह प्रश्न
मन में सहजता से उठता है। संगीत के महान अभ्यासक अशोक रानड़े जी कहते हैं, ‘’व्याख्या तथा परिभाषा की जटिलता के प्रश्नों के
परे जा कर शास्त्रीय तथा कला संगीत का वर्णन, अभ्यासपूर्ण
परम्परा से जुड़ा सूत्रबद्ध संगीत’’ इन शब्दों में किया जा
सकता है। इस वर्णन से मिलता-जुलता संगीत महाराष्ट्र में सन २०० से अस्तित्व में
है।
हिन्दुस्तानी
शास्त्रीय संगीत का आधुनिक काल में सबसे अधिक योगदान रहा ग्वालियर के दरबार से। १४
वी और १५ वी शताब्दी में ग्वालियर संगीत का अपना खास गृह था। फकिरुल्ला ने लिखा है
कि राजा मानसिंह तोमर स्वयम संगीत के अभ्यासक थे, रचनाकार थे, तथा संगीतकारों के महान आश्रयदाता थे। उनका मानकुतूहल यह ग्रन्थ फकिरुल्ला ने फ़ारसी
में अनुवादित किया था। औरंगजेब के शासन में यह बहुत बड़ा काम हुआ था। (इतिहास में
औरंगजेब को संगीत का शत्रु माना जाता है। पर उसका संगीतप्रेम कहीं छुपाया जाता है।
उसके आश्रय में भी अच्छे संगीतकार थे।)
मध्य भारत में धार
के राजाओं ने भी संगीत को आगे बढ़ाया था। दूर दक्षिण में तंजावर के मराठा शासकों ने
तो संगीत, साहित्य और अन्य कलाओं को बहुत ऊँचे स्तर तक आगे बढ़ाया। उनमे से
तुलाजीराव महाराजा (१७६३-१७८७) स्वयम विद्वान रचनाकार थे। उन्होने ‘संगीत सारामृतम’ इस ग्रन्थ की रचना भी की। तंजावर के
राजा स्वाती तिरुनाल संस्कृत, हिन्दी,
मलयालम, तमिल तथा मराठी भाषाओं में काव्यरचना करते थे। वे स्वयं
नर्तक तथा रचनाकार भी थे। बड़ौदा संस्थान के नरेशों ने भी संगीत के संवर्धन में
महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वहाँ के सयाजीराव गायकवाड जी तृतीय (१८६३-१९३९) ने प्रो.
मौलाबक्ष की अध्यक्षता में १८३६ में अकादमी ऑफ इंडियन म्यूझिक की स्थापना की थी।
उसी संस्था को बाद में Faculty Indian Music, University Of Baroda के नाम
से जाना गया। इनायत खाँ, फय्याज खाँ जैसे विद्वान कलाकार भी
वहीं पर कार्यरत थे। १९१६ में महाराजा ने पण्डित विष्णु नारायण भातखण्डे जी के
नेतृत्व में संगीत का पहला अखिल भारतीय सम्मेलन आयोजित करवाया था।
मैसूर दरबार का महत्व
दक्षिण में
हिन्दुस्तानी संगीत का सबसे प्रथम प्रवेश हुआ मैसूर के दरबार में। अन्य संस्थान, जैसे जमखंडी, श्रीरंगपट्टन, मुधोल, बीजापुर, बिदर आदि क्षेत्रों में संगीत बड़ी मात्रा में था,
पर ज्यादह प्रभाव कर्नाटक संगीत का था। मैसूर के महाराजा कृष्णराज वड़ेयर चतुर्थ
(१८९५-१९४०) जी ने हिन्दुस्तानी संगीत को प्रेमपूर्वक अपनाया था। महाराजा स्वयं
कुशल वीणावादक होने के कारण गायन-वादन के तन्त्र को भली भांति जानते थे। कोई भी
अच्छा कलाकार उनकी परखी हुई नज़र से छूटता नहीं था। उसे तुरंत अपने दरबार में
बुलाकर उसकी अच्छी सम्भावना वे करते थे। इस दक्षिणाधी संगीत कि राजधानी में सबसे
प्रथम हिन्दुस्तानी स्वरों की सुनहरी लहर गूँज उठी उस्ताद नत्थन खाँसाहब की।
महाराज ने मुम्बई में खाँसाहब को पहली बार सुना। उन्हें मैसूर दरबार का तुरन्त
न्यौता मिल गया। दरबार में हुए उनके गायन से महाराजा इतने खुश हुए कि खाँ साहब को
तत्क्षण दरबार गायक का पद मिला। दक्षिण भारत में हिन्दुस्तानी संगीत का यह प्रथम
स्पर्श था। महाराज ने उनसे अनेक ख्याल सीखे। १९०० में नत्थन खाँसाहब चल बसे तब
उस्ताद फय्याज खाँसाहब को दरबार गायक के रूप में बुलाया गया। खाँसाहब बड़ौदा के
दरबार में रूजु होने के कारण उन्होने नत्थनखाँ
साहब के पुत्र उस्ताद विलायत खाँसाहब को निमंत्रित करने की सूचना की और
महाराजा ने उसे मान लिया। फय्याज खाँसाहब भी मैसूर अक्सर जाया करते थे। उनकी गायकी
पर सारा माहौल डोला करता था। महाराजा ने उसी दरबार में खाँसाहब पर “आफ़ताब ऐ
मौसिकी” यह किताब बक्षाया।
मैसूर दरबार के कारण
ही धारवाड़, बेलगांव जैसे शहरों में फ़य्याझ खाँसाहब का बड़ा नाम हुआ और उनकी महफ़िलें
वहाँ पर सजने लगी। उन्हीं के एक शिष्य पण्डित रामराव नायक ने बंगलौर शहर जैसे
कर्नाटक संगीत के “मायके” में हिन्दुस्तानी संगीत की नींव रखी।
मैसूर दरबार में हिन्दुस्तानी
संगीत को लोकप्रिय बनाने में अनेक महान विद्वानों का योगदान रहा। हैदराबाद के
सितारवादक नन्हें खाँ, बाबुराव, विमलाबाई, कोलकोता
की इंदुबाला, के सी डे, पंजाब के दिलीप
चन्द्र वेदी, अलीगढ़ के मोहम्मद बशीर खाँ, कोल्हापुर के विश्वनाथ जाधव, बनारस की गौहर जान, पुणे की सरस्वती राणे, मुम्बई की केसरबाई केरकर, नारायणराव जोशी, बेलगांव के कागलकर जैसे जाने-माने
कलाकार दरबार के भूषण बन गएँ। इन सारे विद्वानों ने पूरे मैसूर प्रान्त में (आज के
कर्नाटक का भाग) तथा पूरे महाराष्ट्र में हिन्दुस्तानी संगीत का तेजस्वी प्रकाश
फैलाया। उर्वरित सारे देश में उनका नाम तो था ही।
१९१९ में उस्ताद
बरकतुल्ला खाँ मैसूर में दरबार गायक बन गएँ। एक माह की उनकी बिदागी थी सौ रुपये।
महाराजा ने उन्हें “आफताब ऐ सितार” कहकर सम्मानित किया। भिण्डीबाजार घराने के
उस्ताद अमान अली खाँ दरबार के खास मेहमान थे। उनके गायन का प्रतिध्वनि पूरे भारत
में सुनाई दिया। इसका कारण यह था कि उनकी और दक्षिण के विद्वान वीणा शेषण्णा का
दोस्ताना। इन दोनों की सांगीतिक लेन-देन से हिन्दुस्तानी संगीत को अनेक
दाक्षिणात्य रागों का अनुपमेय उपहार मिला। इसका सबसे लोकप्रिय और महत्वपूर्ण
उदाहरण है राग हंसध्वनि का। कर्नाटक की सुप्रसिद्ध कृति “वातापि गणपतीं भजेहम”
इसपर उस्ताद ने “लागी लगन पति सखी सन” यह बन्दिश रची, जिसे आज सारे
हिन्दुस्तानी गायक गाते हैं।
प्रो. मौला बक्ष भी
मैसूर दरबार के प्रिय कलाकार बन गएँ। उनके संगीतशास्त्र का ज्ञान तथा जलतरंग पर कर्नाटकी
राग बजाने की हुनर ने सब का दिल जीता। उस्ताद अब्दुल करीम खाँ दरबार के नित्य
मेहमान थे। वहीं पर उन पर “संगीत रत्न” की उपाधि प्रदान हुई। खाँसाहब वहीं से
कुंदगोल या बेलगांव जाया करते थे, जहाँ
श्रेष्ठ सवाई गन्धर्व उनके शिष्य निवास करते थे। आगे चल कर किराना घराने की यह
गंगोत्री पण्डित भीमसेन जोशी, डा. गंगुबाई हनगल, पण्डित फिरोज़ दस्तूर जैसे दिग्गजों तक उफान से बहती गई।
मैसूर महल में स्थित
ग्रन्थभण्डार महापण्डित शास्त्रकार विष्णु नारायण भातखण्डे जी के लिए संगीतशास्त्र
लिखने में बहुत ही उपयोगी सिद्ध हुआ। दक्षिण के अनेक विद्वान महाराजा की उपस्थिती
में भातखण्डे जी के साथ शास्त्रचर्चा में शामिल हुआ करते थे।
मूर्धन्य कलाकारों का उत्तरी कर्नाटक से सम्बन्ध
बेलगांव में उन
दिनों ग्वालियर घराने के महापण्डित रामकृष्णबुवा वझे रहते थे। उनके एक पुत्र
शिवरामबुवा पिता के समान विद्वान गायक थे, तो दूसरे पुत्र लक्ष्मणराव जलतरंगवादक
थे। किराना घराने के अध्वर्यु उस्ताद अब्दुल करीम खाँ भी बेलगांव में ही रहते थे।
उनके ‘आर्य संगीत विद्यालय’ में भी
देशभर के विद्वानों का आना-जाना था। उस्ताद विलायत हुसेन खाँ आगरा घराने के
विद्वान बेलगांव में कुछ वर्ष विद्यादान करते थे। तबलावादन के गुरु महबूब खाँ, उ. शमसुद्दीन खाँ, सवाई गन्धर्व रामभाऊ कुंदगोलकर, गायक बालकृष्णबुवा कपिलेश्वरी, शंकरराव सरनाइक, व्ही. ए. कागलकरबुवा, प्रख्यात नर्तिका तथा गायिका
मेनका शिरोड़कर (पण्डिता शोभा गुर्टू जी की माता), जैसे
श्रेष्ठ संगीत रत्न बेलगांव में ही रहते थे। लगभग दो वर्ष मोगूबाई कुर्डीकर (पण्डिता किशोरी अमोणकर जी की माता) जी भी यहाँ
रहकर अपनी संगीतसाधना करती थी।
पण्डित विठ्ठलराव
कोरेगांवकर बहुत ख्यातिप्राप्त हारमोनियम वादक थे, जमखंडी के राजदरबार से
निवृत्त गणपतराव गुरव किराना गायकी के जानकार थे, ग्वालियर
गायकी के तामहणकर थे, विख्यात तबला वादक बसवराज भेंडिगेरी थे, रामकृष्ण बोंदरे जी थे, किराना घराने के एक और
गवैये राजाराम जाधव थे, जो आगे चलकर मुम्बई में फिल्म संगीत
के निर्देशक बने। सितार वादक विश्वनाथ शिरगुरकर पण्डित रविशंकर जी के साथ में
आकाशवाणी पर मुम्बई में काम करते थे, उनका भी निवास बेलगांव
में रहा।
मराठी के प्रख्यात
साहित्यकार तथा संगीतकार पु. ल. देशपाण्डे, विश्वविख्यात गायक और संगीतकार
जितेंद्र अभिषेकी, गायक प्रभुदेव सरदार, हारमोनियम वादक रामभाऊ बीजापुरे, गायक
मृत्युंजयबुवा पुराणिकमठ, आर. एन. जोशीबुवा, दिलरुबा वादक पंडितराव धर्माधिकारी ऐसे श्रेष्ठ गायक-वादक-नर्तक इस नगरी
में रहकर संगीत के संस्कार जन-मानस पर करते रहे।
आज भी बेलगांव नगरी
के संगीत कलाकार देश-विदेशों में अपना नाम कर रहे हैं। पण्डित अनन्त तेरदाल
(पण्डित भीमसेन जी के शिष्य), पण्डित कैवल्य कुमार (पण्डित संगमेश्वर जी के
पुत्र), डा. सुधांशु कुलकर्णी, डा.
रवीन्द्र काटोटी (हारमोनियम), पण्डित राजेन्द्र कुलकर्णी
(बांसुरी) जैसे गायक-वादक इनमे हैं। नई पीढ़ी में भी नए होनहार अपनी कला को अच्छी
तरह से प्रस्तुत कर रहे हैं।
बहुचर्चित ज्ञानी, अष्टावधानी
गायक, श्रेष्ठ रचनाकार तथा गुरुओं के गुरु पण्डित भास्करबुवा
बखले १९०८ में पुणे से धारवाड़ आए। कर्नाटक कालिज में बुवासाहब को संगीत सिखाने के
लिए नियुक्त किया गया। उनके पास गुरुराव देशपाण्डे, टी. के.
पित्रे वकील, हनमंतराव वालवेकर, सुबराव, मणेरीकर जैसे सूज्ञ जन सीखने आते थे। बुवासाहब के गुरु उस्ताद नत्थन
खाँसाहब भी धारवाड़ में रहने लगे। हददु खाँसाहब के सुपुत्र भूगन्धर्व रहमत खाँ का
भी निवास हुबली के सिद्धारुढ मठ में हुआ। श्रेष्ठ पण्डित रामकृष्णबुवा वझे (१८७१-१९४५)
गुरु सान्निध्य के लिए बेलगांव से हुबली अक्सर जाया करते थे। इंदौर से सितार रत्न
रहमत खाँ धारवाड़ आकर रहने लगे। उस्ताद कहते थे, “उत्तर पैदा
करती है, तो दक्षिण कदर करती है”। वहाँ का संगीतप्रेम देख कर
उन्होने खुद को “धारवाड़कर” कहलवाना शुरू
किया। खाँसाहब ने १९३२ में धारवाड़ में भारतीय संगीत विद्यालय की स्थापना की। प्रो.
ए. करीम खाँ, उस्ताद बाले खाँ, उस्मान
खाँ, हमीद खाँ, शफिक खाँ, छोटे रहमत ऐसे उनके वंशजों ने धारवाड़ घराने की ध्वजा ऊँची कर दी है।
अब्दुल करीम खाँ
(१८८२-१९३७) और बीनकार मुराद अली खाँसाहब (१८४०-१८७०) ने बहुत बड़ा शिष्य सम्प्रदाय कर्नाटक में निर्माण
किया। कृष्ण राव पलण्डे जी को कर्नाटक में रुद्रवीणा को लोकप्रिय बनाने का श्रेय
दिया जाता है। पलण्डे मास्टर, अकबरनीस, कृष्णराव हुईलगोल
जैसे विद्वान हुबली-धारवाड़ की संगीतधारा को अधिक ऊँचाई पर ले गएँ। ८० के दशक में
आकाशवाणी धारवाड़ के संचालक वेंकटेश गोड़खिंडी उच्च श्रेणी के बांसुरीवादक हो गए, तो उनके सुपुत्र प्रवीण आज महान बांसुरीवादक के रूप में विश्व विख्यात
हैं। कर्नाटक में सरोद वादन की परम्परा का प्रारम्भ करनेवाले उस्ताद अली अकबर खाँ
के शिष्य राजीव तारानाथ (१९३२-२०१७) का भी योगदान महत्वपूर्ण है। रजब अली खाँ के
शिष्य बीनवादक दत्तोपंत तथा उनके पुत्र बिन्दु
माधव पाठक ने धारवाड़ में जोश के साथ संगीतकार्य किया। रजब अली खाँसाहब कोल्हापुर
दरबार में १८९५ से १९१५ तक थे। साधु वृत्ति में रहनेवाले ज्ञानी वीणावादक दत्तोपंत
पर्वतीकर जी का नाम उनकी खास बनाई हुई दत्तवीणा के लिए लिया जाता है।
उत्तरी कर्नाटक में
हिंदुस्तानी संगीत के उन्नति का अविस्मरणीय कार्य करनेवाले गानयोगी पंचाक्षरी गवई
(१८९२-१९४४) जी को देवतुल्य स्थान दिया गया है। जन्म से ही अन्ध गवई जी को हनगल
कुमार स्वामी जी ने आधार दिया। उस्ताद अब्दुल वहीद खाँ, नीलकण्ठबुवा
अलूरमठ, पण्डित रामकृष्णबुवा वझे, तथा
उस्ताद इनायत हुसेन खाँ जैसे महान गुरुओं ने उन्हें संगीत की शिक्षा दी। उन दिनों
में बहुत लोकप्रिय हुए बालगन्धर्व के मराठी संगीत नाटक उन्हें बहुत पसन्द थे।
इसीके कारण गन्धर्वी गायकी के वे निस्सीम उपासक बन गएँ। मैसूर के महाराजा कृष्णराज
वडेयर द्वितीय ने गदग में उनके वीरेश्वर पुण्याश्रम स्थापन करने के लिए बहुत सारी
सहायता की। सैंकड़ो अन्ध विद्यार्थियों के लिए पंचाक्षरी गवई मसीहा के रूप में
उभरे। पूरे मैसूर प्रान्त में हिन्दुस्तानी संगीत का बहुत प्रखर प्रचार उन्होने
किया। देश-विदेशों में संगीत की ध्वजा ऊँची करनेवाले पण्डित मल्लिकार्जुन मंसूर, पण्डित बसवराज राजगुरु, पण्डित अर्जुनसा नाकोड, पण्डित मृत्युंजयबुवा तथा उनके बन्धु चन्द्रशेखर पुराणिकमठ, सिद्धराम जंबलदिन्नी, डा. शेषाद्रि गवई जैसे अनेक
श्रेष्ठ कलाकार उनके शिष्य थे। उनके पश्चात उनके शिष्य डा. पुट्टराज गवई ने आश्रम
का कार्य दूरदृष्टि से संभाला। अन्धों के लिए पाठशाला, निवास, आधुनिक शिक्षा तथा अनाथ और गरीबों के लिए अनेक प्रकार के प्रावधानों का
निर्माण किया। पुट्टराज जी स्वयम संस्कृत, हिन्दी तथा कन्नड
भाषा के महापण्डित थे। उन्होने भगवद्गीता का ब्रेल में रूपान्तर किया, तथा रागों की सैंकड़ो बन्दिशें रची। पण्डित एम. वेंकटेश कुमार, डी. कुमारदास, बल्लेश,
भालचन्द्र शास्त्री जैसे अनेकों का उनके प्रख्यात शिष्यों में नाम है।
उत्तरी कर्नाटक में जन्मे
श्रेष्ठ कलाकारों में एक और विश्वप्रसिद्ध नाम है पण्डित मल्लिकार्जुन मंसूर जी (१९१०-१९९२)
का। बाल्यावस्था में संगीत नाटकों में काम करनेवाले मंसूर जी को शास्त्रीय संगीत
की शिक्षा प्रथम पण्डित नीलकण्ठबुवा अलूरमठ जी से मिली। ग्वालियर गायकी की
पारम्परिक शिक्षा लेने के बाद मंसूर जी मुम्बई चले गएँ, जहाँ एच.
एम. व्ही. तथा ओडियन कम्पनी ने उनके अनेक ग्रामोफोन रिकार्ड बनवाएँ। सौभाग्यवश
वहीं पर उनको उस्ताद अल्लादिया खाँ साहब से मिलने का मौका मिला और उनका पूरा
सांगीतिक विचार ही बदल गया। उस्ताद जी के सुपुत्र उस्ताद मँजीखाँ से उन्होने जयपुर
अतरौली घराने का गायन अंगिकृत किया। मंसूर जी ने एक से बढ़ कर एक शिष्यों को इस
घराने की तालीम दी। डा. राजशेखर मंसूर, पंचाक्षरी मट्टीगट्टी, राजीव पुरंदरे, सिद्धराम जंबलदिन्नी, विश्वजीत दासगुप्ता, एस. कालिदास जैसे अनेक नाम
उसमे आते हैं।
पण्डित बसवराज
राजगुरु (१९२०-१९९१) जी का भी नाम उत्तरी कर्नाटक की संगीतधारा में बड़ा ऊँचा है।
उनके घर में कर्नाटक संगीत की परम्परा थी। कन्नड नाट्यसृष्टि में गायक नट होने के
कारण उनको प्रसिद्धि मिल चुकी थी। गदग में स्थित गानयोगी पंचाक्षरी गवई जी के
सान्निध्य में राजगुरु जी को कर्नाटक और हिन्दुस्तानी गायन सीखने को मिला। उसके
पश्चात पण्डित नीलकण्ठबुवा मिरजकर, उस्ताद वहीद खाँ, सवाई गन्धर्व, सुरेशबाबू माने, उ. मुबारक अली, उ. इनायतुल्ला खाँ, उ. रोशन अली तथा प्रख्यात हार्मोनियम वादक पण्डित गोविंदराव टेम्बे जी से
उनको मार्गदर्शन मिला। अति लोकप्रिय बसवराज जी ने आकाशवाणी के राष्ट्रीय प्रसारण
में पन्द्रह बार अपना कार्यक्रम दिया था। आज पण्डित गणपति भट जैसे उनके अनेक शिष्य
कर्नाटक में कार्यरत हो कर सारे विश्वभर में प्रसिद्ध हो चुके हैं।
डा. गंगुबाई हंगल
(१९१३-२००९) जी का नाम सारे संगीतविश्व में बड़े आदर के साथ लिया जाता है।
पद्मविभूषण गंगुबाई सवाई गन्धर्व जी की शिष्या थी। किराना घराने की गायनविद्या की
शुद्धता का जतन करके उसे वैभव प्राप्त कराने का श्रेय उन्हीं को दिया जाता है।
उस्ताद अब्दुल करीमखाँ साहब ने बोया हुआ किराना घराने का बीज सवाई गन्धर्व जी ने
अपनी अनूठी कला से एक महावृक्ष का निर्माण किया, जिसकी छाया में गंगुबाई, भीमसेन जोशी जी, फिरोज दस्तूर जी जैसे दिग्गज
कलाकार निर्माण हुएँ। गंगुबाई जी के काल में स्त्रियों का सार्वजनिक गायन निषिद्ध
माना जाता था। ऐसे काल में गंगुबाई जी के नाम का डंका पूरे देश में बजने लगा। १९३१
से २००५ तक गंगुबाई जी विश्वभर के संगीत सम्मेलनों में गाती रही।
भारतरत्न पण्डित
भीमसेन जोशी (१९२२-२०११) के संगीतकार्य को पूरे हिन्दुस्तानी संगीत के इतिहास में
सुवर्णक्षरों में लिखा गया है। सवाई गन्धर्व जी के शिष्य भीमसेन जी को शास्त्रीय
संगीत घरों-घरों में प्रिय करने का श्रेय दिया जाता है। उनकी तरुणावस्था में संगीत
नाटक का आकर्षण कम होकर सिनेमा का आकर्षण समाज में बढ़ने लगा था। ऐसे में शास्त्रीय
संगीत के आधार पर गाएँ जानेवाले नाट्यगीत
महफिल में प्रस्तुत करने का नया लोकप्रिय तरीका गायकों ने शुरू किया था। किराना
घराने की यथास्थित तालीम को प्राप्त किए भीमसेन जी ने ख्याल को नयीं ऊँचाई दी, तथा
नाट्यसंगीत, भजन, ठुमरी गायन को आम
जनता में प्रस्थापित किया। उनके गाएँ हुए मराठी तथा कन्नड संतों के अभंग और दासरपद
आज हर घर में गाएँ जाते हैं।
डा. कुमार गन्धर्व
(१९२४-१९९२) जी का जन्म बेलगांव के निकट सुलेभावी ग्राम में हुआ। उनका मूल नाम था
शिवपुत्र सिद्रामप्पा कोमकालिमठ। उ नके घर में गायन का माहौल था। छोटे कुमार जी ने
भी बचपन में आठवे वर्ष से ही गाना शुरू किया। उनकी विशेषता यह थी, कि करीम
खाँसाहब की हो, या किसी अन्य कलाकार की; कोई भी ग्रामोफोन रिकार्ड सुनकर वैसी के वैसे गाने में उनका कौशल्य था।
केवल उतना ही नहीं, उस गायक के अंत:करण को समझ कर आगे उस राग
की आलाप-ताने बखूबी से गाने की उन में क्षमता थी। उनकी यह प्रतिभा को देख कर सारे
देश के संगीत रसिक हैरान हो जाते थे। १९३५ में कोलकोता के उनके एक कार्यक्रम में
मुम्बई के महान गुरु प्रो. बी. आर. देवधर जी ने कुमार जी को सुना। उनके आग्रह से कुमार
जी मुम्बई में रहने लगे। देवधर जी पास हिंदुस्तान के सारे कलावन्त आते थे। हरेक की
पद्धति, आलापचारी, तनाइत, ताल की लडत, शास्त्रज्ञान इन सब बातों का गहरा असर
उनकी संगीतदृष्टि पर होने लगा। उनके हर
प्रश्न का उत्तर देवधर जी के पास होता था। तबीयत कुछ खराब होने के कारण उनको मध्य
प्रदेश के देवास में आ कर रहना पड़ा। लगातार पाँच वर्ष उन्हे विकलता से जूझना पड़ा।
उस समय मालवा के लोकसंगीत को सुनते हुए उनको रागदारी संगीत के लोकधुनों से हुए उगम
की शक्ति महसूस हुई। पारम्परिक रागों को नई नजर से देखने की प्रेरणा मिली। उसी
अवलोकन के फलस्वरूप अनेक धुन उगम रागों की रचना कुमार जी ने की। मालवती, अहिमोहिनी, मधसुरजा, लगन
गांधार, सहेली तोड़ी जैसे अनेक नएँ राग उन्होने रचे। प्रकृति
का संगीत से संबंध दिखानेवाले गीत वर्षा, गीत हेमन्त, त्रिवेणी जैसे कार्यक्रम, तथा मालवा की लोक धुनें, तुलसी, कबीर, जैसे संतों के
दर्शन विचार प्रकट करनेवाले कार्यक्रम उन्होने किएँ।
किराना घराने के एक
और विद्वान पण्डित संगमेश्वर गुरव (१९३२-२००४) का भी बेलगांव की संगीत भूमि में संगीतकार्य सफल हुआ। उस्ताद अब्दुल करीम खाँ साहब और पण्डित भास्करबुवा बखले जी से संगीत
शिक्षा प्राप्त किए हुए पण्डित गणपतराव गुरव (जमखंडी रियासत में दरबार गवई थे) जी बेटे संगमेश्वर जी को प्रति करीमखाँ कहा
जाता था। किराना घराने के गायन का मूल
स्वरूप उनके गायन से श्रोताओं को सुनने को मिला।
मराठी संगीत नाटक तथा कलाकार
किसी भी भाषा या
समाज की रंगभूमी अचानक जन्म नहीं लेती। लोक संगीत की परम्परा पीढ़ी-दरपीढ़ी
सैंकड़ों वर्षों के संस्कारों से चली आती है। मौखिक रूप से ही उसका चलन समाज मन पर
असर करता रहता है।
आधुनिक मराठी
रंगभूमी का बीज सांगली शहर में विष्णुदास भावे जी ने बोया, यह बात सत्य
है। फिर भी पुरातन काल से चले आ रहे दशावतार, भारुड, तमाशा, ललित, सोंगी भजन जैसे
नाना प्रकार इस अभिनय कला के पीछे थे। ये सारे नाट्यरूप में ही आते हैं, पर सबकुछ मौखिक रूप में ही था। नाट्यसंहिता नहीं थी।
दक्षिण भारत के तंजावर
में शिवाजी महाराज के भाई व्यंकोजी राजे महान कलासक्त थे। उनके साथ-साथ भोसले
घराने के अनेक राजाओं ने नाटकों का लेखन किया। मराठी के अलावा अन्य दक्षिणी भाषाओं
में भी उन्होने नाट्यलेखन किया।
१८४२ में मैसूर
प्रान्त के करकी गाँव के भागवत मेले ने सांगली के दरबार में यक्षगान के खेल
प्रस्तुत किए थे। उन्हे देख कर वहाँ के पटवर्धन राजा ने अपने एक कलाकार विष्णुदास
भावे जी को मराठी में नाट्य लेखन करने की सूचना दी। परिणामस्वरूप 1848 में भावे जी
ने ‘सीता स्वयंवर’ इस नाटक की प्रस्तुति की। इसमे गद्य
संवादों के साथ-साथ उस जमाने के रूढ गायन प्रकारों तथा वाद्यों को भी शामिल किया। इससे प्रेरणा
लेकर इचलकरंजी नाटक मंडली, कोल्हापूरकर नाटक मंडली जैसी अनेक
संस्थाओं ने गद्य तथा संगीतमय नाटकों की सार्वजनिक प्रस्तुति आरम्भ की।
बेलगांव की संगीत
परम्परा की अभिवृद्धि में नाट्यसंगीत को बड़ा महत्व है। लोकप्रिय मराठी संगीत
रंगभूमी के जनक माने जानेवाले बलवन्त पांडुरंग अर्थात अण्णासाहेब किर्लोस्कर (१८४३-१८८५)
जी का जन्म बेलगांव जिले के गुर्लहोसुर गाँव में हुआ। उस जमाने में संस्कृत नाटक
तथा अन्य साहित्य का मराठी में अनेक साहित्यकारों ने रूपान्तर किया। अण्णासाहेब के
घर में भी ऐसे साहित्य संस्कार थे। भरतमुनी ने लिखे नाट्यशास्त्र के भी उनपर
संस्कार हुए। प्राथमिक शिक्षा के पश्चात किर्लोस्कर जी पुणे गए। वहाँ का
सांस्कृतिक वातावरण उनकी प्रतिभावान लेखनकला को उत्तेजित करने लगा। वहाँ पर
उन्होने फ़ारसी नाट्यकम्पनी के खेल देखे। उससे प्रेरणा लेकर पुणेकर नाटक मंडलियों
को उन्होने अनेक आख्यान लिखकर दिए। कविताएं लिखी। परन्तु सम्पूर्ण नाटक लिखने का
अवसर उन्हे पुणे में नहीं मिला। १८६७ में उन्होने ५०० आर्याओं में बद्ध ‘श्री शिवाजी
महाराज’ यह काव्य लिखा।
बेलगांव के सरदार्स
हाईस्कूल में अण्णासाहेब शिक्षक बन गएँ। वहाँ आनेपर नाट्यप्रेमी लोगों की तलाश की।
उसी समय १८७३ में उन्होने ‘शांकर दिग्विजय’ यह नाटक लिख कर प्रसिद्ध किया। उसे
अनेक नाटक मंडलियों ने अपनाया तथा उसके प्रयोग शुरू हुएँ। पुस्तक के आधार पर
संवादों का मंच पर बोला जाना उन्हीं के कारण शुरू हुआ, यह
अण्णासाहेब की रंगभूमी को सबसे बड़ी देन
है। ‘श्रीकृष्ण पारिजात’, ‘रासक्रीड़ा’, विक्रमचरित’, ‘हरिश्चंद्र’, ‘शुकरम्भा संवाद’ जैसे अनेक नाटक उन्होने लिखे। ओवि, अभंग गाने की
परम्परा के अनुसार उनमे गायन करने की जनप्रिय पद्धति अपनाई गई। 1878 में बेलगांव
के शाहपुर विभाग में आज जहाँ सरस्वती वाचनालय है, उसके तब के
मैदान पर अण्णासाहेब ने महाकवि कालिदास लिखित ‘अभिज्ञान
शाकुंतलम’ के चार अंक का मराठी प्रयोग अपने बेलगांव स्थित
सहकलाकारों को लेकर प्रस्तुत किया। बाद में १८८० में पुणे के ‘आनंदोद्भव’ नाट्यगृह में हुए इस नाटक के प्रयोग को
प्रथम प्रस्तुति का सम्मान मिला।
संगीत शाकुंतल नाटक में २०० गीत थे।
इसमे से कई पद अण्णासाहेब के शिष्य तथा दूसरे महान नाटककार गोविन्द बल्लाल देवल जी
ने लिखे थे। इस नाटक के बाद अण्णासाहेब ने
संगीत सौभद्र नाटक को प्रस्तुत किया। इस नाटक में भी पदों की भरमार थी। कैसा था यह
संगीत?
मराठी में हरिदासी
कीर्तन परम्परा को बड़ा महत्व है। कीर्तनकार आकर्षक पहनावा तथा पगड़ी पहन कर हाथ में
मँजीरा, करताल लेकर, पाँव में घुँघरू बाँधकर प्रथम मंगलाचरण
के श्लोक, नमन, हरीनाम का गजर करते हुए
फिर मुख्य अभंग को गा कर उसका विवरण गद्य रूप में करते हैं। कथावस्तु को विविध
उदाहरणों के साथ, पौराणिक तथा ऐतिहासिक संदर्भों के दाख़िले
देते हुए अभिनय, नृत्य, स्वर-लय-ताल के
गुणों को वे दर्शाते हैं। इस तरह कीर्तन कला एक परिपूर्ण कला बन जाती है। इसमे
आर्या, ओवी, साकी, दिंडी, विविध वृत्त, वीर, शृंगार, भक्ति, रौद्र आदि
सारे नवरसों का दर्शन देनेवाले गायन तथा काव्यप्रकारों का अंतर्भाव होता है।
तात्पर्य यह है कि उस
समय के मराठी संगीत नाटकों पर इस कला का पूरा प्रभाव था। प्रथम सूत्रधार मंच पर आ
कर कथावस्तु की प्रस्तुति करता था। उसके बाद हरेक पात्र गीतों की प्रस्तुति के साथ
नाट्य को आगे बढ़ाता था। यद्यपि इस पद्धति में कालान्तर से बदल होते गएँ, फिर भी इन
दोनों नाटकों के कई पद आज भी उसी तरह गाएँ जाते हैं।
संगीत नाटकों का
संगीत हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के प्रभाव में आया पण्डित भास्करराव बखले जी के
संगीत निर्देशन में। किर्लोस्कर मंडली बंद होने के बाद बालगन्धर्व की गन्धर्व नाटक
मंडली का काफी दबदबा निर्माण हुआ। बालगन्धर्व का अनुपमेय गायन, उनका
स्त्रीसुलभ अभिनय, बेशकीमती पर्दे, सेट, तथा जवाहिर यह सब एक सुनहरे सपने जैसा था। संगीत स्वयंवर इस नाटक से
बखलेबुवा गुरु के रूप में मंच पर आएँ। ख्याल, ठुमरी, कजरी, चैती जैसे हिंदुस्तानी नज़ाकतदार गीत मराठी
पदों के रूप में नाटकों का खास आकर्षण बन गएँ। उनके गायन से ‘गंधर्वी गायकी’ का एक नया संगीत प्रमाण रूढ हो गया।
आगे चलकर मास्टर कृष्णराव, और गोविंदराव टेम्बे जी ने
बालगन्धर्व के लिए और नयीं तर्जें बनाई, जो उनकी गायकी के
कारण और ऊँचाई को छूने लगी। संगीत मानपमान, एकच प्याला, द्रौपदी, कान्होपात्रा जैसे एक से बढ़कर एक संगीत
नाटक मराठी रसिकों के जीवन के अविभाज्य घटक बन गएँ।
गन्धर्व के गायन का
बहुत बड़ा प्रभाव दक्षिण भारत की अन्य भाषाओं के नाटकों पर भी पड़ा। विशेष करके
कन्नड रंगभूमि के सारे गीत गन्धर्वी शैली से सजने लगे। तेलुगू रंगभूमी पर भी उनके
गायन का गहरा असर पड़ा। बेलगांव जिले के सुप्रसिद्ध शतायुषी येनगी बालप्पा गन्धर्वी
शैली के गायन के कारण कन्नड रंगभूमी के रसिकमणि बन गएँ। उत्तर कर्नाटक की अनेक
नाटक मंडलियाँ इसी तरह के गीतों के कारण जन मन पर अधिराज करने लगी। इनमे लिंगराज
नाटक कम्पनी, गरुड सदाशिव राय की दत्तात्रय नाटक कम्पनी, वामनराव
कुलकर्णी की विश्व गुणादर्श कम्पनी, शिवानंद कम्पनी, स्त्री संगीत नाटक कम्पनी, गुरुसेवा नाटक कम्पनी
जैसे अनेक संघ केवल संगीत के कारण यशस्वी हुए।
मल्लिकार्जुन मंसूर, बसवराज
राजगुरु, बालप्पा हुककेरी, गोहरजान
कर्नाटकी, अमीरबाई कर्नाटकी, वजीरबाई, ईश्वरप्पा मिनची, बसवराज मंसूर के जैसे अनेक गुणवान
गायक इस अनोखी शैली के आधार से विख्यात हो गएँ।
गोविंदराव भावे तथा हूगार फकीरप्पा उस जमाने के
कन्नड नाटकों के विख्यात संगीत निर्देशक रहे।
बालगन्धर्व की
निवृत्ति के बाद संगीत का रंगभूमी पर का प्रभाव कम नहीं हुआ, बल्कि नए नए
गायक नट रंगभूमी पर अवतीर्ण हुए। इनमे सबसे तेजस्वी थे मास्टर दीनानाथ मंगेशकर
(लता मंगेशकर जी के पिता)। उनके बाद छोटा गन्धर्व, भार्गवराम
आचरेकर, जयराम शीलेदार, जयमाला शिलेदार, ज्योत्स्ना भोले, भालचन्द्र पेंढ़ारकर, राम मराठे जैसे श्रेष्ठ गायक/गायिकाओं ने रंगभूमी पर तथा शास्त्रीय संगीत के मंच पर
ख़्याल के साथ नाट्यसंगीत का महत्व बढ़ाया।
आधुनिक काल के
नाट्यसंगीत में सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का स्थान पण्डित जितेन्द्र अभिषेकी जी को
मिला है। रागदारी संगीत का ढाँचा नहीं बदलते हुए अभिषेकी जी ने संगीत को एक बिलकुल
नया रूप दे दिया। आधुनिक शैली का अनुसरण करते हुए पार्श्वसंगीत का भी उपयोग
उन्होने किया। उनकी रागाधारित रचनाएँ तो अत्यन्त आव्हानात्मक रही, तथा आज भी
उतनी ही अनुकरणीय हैं। उनके नाटक ‘मत्स्यगंधा’ से ‘महानंदा’ तक अप्रतिम
संगीत कृतियों से भरपूर हैं।
बेलगांव नगर में आज
भी संगीत नाटकों कि लोकप्रियता कायम है, तथा अनेक संस्थाएँ गायक/गायिकाओं को
समेट कर पुराने तथा नएँ संगीत नाटकों को मंच पर लाते हैं,
तथा रसिक भी उनकी भरसक प्रोत्साहना करते हैं। वर्तमान संगीत तथा नाट्यसंगीत के
क्षेत्र में डा. अशोक साठे, प्रभाकर शहापुरकर, संगीता बांदेकर कुलकर्णी, नन्दन हेर्लेकर, एन. डी. जोशी, मुकुन्द गोरे जैसे अनेक कलाकार मौजूद
हैं, तथा अनेक युवा कलाकारों का भी मंच पर उदय हो रहा है।
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नन्दन हेर्लेकर nandanherlekar@gmail.com
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